Read श्रीरामचरितमानस in your own script

Roman(Eng) ગુજરાતી বাংগ্লা ਗੁਰਮੁਖੀ తెలుగు தமிழ் ಕನ್ನಡ മലയാളം हिन्दी

रावण को पुनः मन्दोदरी का समझाना


साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ।
मंदोदरीं रावनहिं बहुरि कहा समुझाइ॥35 ख॥
सन्ध्या हो गई जानकर दशग्रीव बिलखता हुआ (उदास होकरमहल में गया। मन्दोदरी ने रावण को समझाकर फिर कहा-35 ()
चौपाई :
कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥
रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥1
हे कान्तमन में समझकर (विचारकरकुबुद्धि को छोड़ दो। आप से और श्री रघुनाथजी से युद्ध शोभा नहीं देता। उनके छोटे भाई ने एक जरा सी रेखा खींच दी थी,उसे भी आप नहीं लाँघ सकेऐसा तो आपका पुरुषत्व है॥1
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा॥
कौतुक सिंधु नाघि तव लंका। आयउ कपि केहरी असंका॥2
हे प्रियतमआप उन्हें संग्राम में जीत पाएँगेजिनके दूत का ऐसा काम हैखेल से ही समुद्र लाँघकर वह वानरों में सिंह (हनुमान्‌आपकी लंका में निर्भय चला आया!2
रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा॥
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा॥3
रखवालों को मारकर उसने अशोक वन उजाड़ डाला। आपके देखते-देखते उसने अक्षयकुमार को मार डाला और संपूर्ण नगर को जलाकर राख कर दिया। उस समय आपके बल का गर्व कहाँ चला गया था?3
अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु॥
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुलबल जानहु॥4
अब हे स्वामीझूठ (व्यर्थगाल न मारिए (डींग न हाँकिएमेरे कहने पर हृदय में कुछ विचार कीजिए। हे पतिआप श्री रघुपति को (निराराजा मत समझिए,बल्कि अग-जगनाथ (चराचर के स्वामीऔर अतुलनीय बलवान्‌ जानिए॥4
बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा॥
जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला॥5
श्री रामजी के बाण का प्रताप तो नीच मारीच भी जानता थापरन्तु आपने उसका कहना भी नहीं माना। जनक की सभा में अगणित राजागण थे। वहाँ विशाल और अतुलनीय बल वाले आप भी थे॥5
भंजि धनुष जानकी बिआही। तब संग्राम जितेहु किन ताही॥
सुरपति सुत जानइ बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा॥6
वहाँ शिवजी का धनुष तोड़कर श्री रामजी ने जानकी को ब्याहातब आपने उनको संग्राम में क्यों नहीं जीताइंद्रपुत्र जयन्त उनके बल को कुछ-कुछ जानता है। श्री रामजी ने पकड़करकेवल उसकी एक आँख ही फोड़ दी और उसे जीवित ही छोड़ दिया॥6
सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिसेषी॥7
शूर्पणखा की दशा तो आपने देख ही ली। तो भी आपके हृदय में (उनसे लड़ने की बात सोचतेविशेष (कुछ भीलज्जा नहीं आती!7
दोहा :
बधि बिराध खर दूषनहि लीलाँ हत्यो कबंध।
बालि एक सर मार्‌यो तेहि जानहु दसकंध॥36
जिन्होंने विराध और खर-दूषण को मारकर लीला से ही कबन्ध को भी मार डाला और जिन्होंने बालि को एक ही बाण से मार दियाहे दशकन्धआप उन्हें (उनके महत्व कोसमझिए!36
चौपाई :
जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥
कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥1
जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़ेउन सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ाने वालेकरुणामय भगवान्‌ ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा॥1
सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा॥
अंगद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके॥2
जिसने बीच सभा में आकर आपके बल को उसी प्रकार मथ डाला जैसे हाथियों के झुंड में आकर सिंह (उसे छिन्न-भिन्न कर डालता हैरण में बाँके अत्यंत विकट वीर अंगद और हनुमान्‌ जिनके सेवक हैं,2
तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू॥
अहह कंत कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा॥3
हे पतिउन्हें आप बार-बार मनुष्य कहते हैं। आप व्यर्थ ही मानममता और मद का बोझ ढो रहे हैंहा प्रियतमआपने श्री रामजी से विरोध कर लिया और काल के विशेष वश होने से आपके मन में अब भी ज्ञान नहीं उत्पन्न होता॥3
काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥
निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं॥4
काल दण्ड (लाठीलेकर किसी को नहीं मारता। वह धर्मबलबुद्धि और विचार को हर लेता है। हे स्वामीजिसका काल (मरण समयनिकट आ जाता हैउसे आप ही की तरह भ्रम हो जाता है॥4
दोहा :
दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥37
आपके दो पुत्र मारे गए और नगर जल गया। (जो हुआ सो हुआहे प्रियतमअब भी (इस भूल कीपूर्ति (समाप्तिकर दीजिए (श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए)और हे नाथकृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी को भजकर निर्मल यश लीजिए॥37
चौपाई :
नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना॥
बैठ जाइ सिंघासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली॥1
स्त्री के बाण के समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभा में चला गया और सारा भय भुलाकर अत्यंत अभिमान में फूलकर सिंहासन पर जा बैठा॥1

Followers/ Subscribers