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श्री सीताजी का स्वप्न, श्री रामजी को कोल-किरातों द्वारा भरतजी के आगमन की सूचना, रामजी का शोक, लक्ष्मणजी का क्रोध


उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा॥
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए॥2
उधर श्री रामचंद्रजी रात शेष रहते ही जागे। रात को सीताजी ने ऐसा स्वप्न देखा (जिसे वे श्री रामचंद्रजी को सुनाने लगींमानो समाज सहित भरतजी यहाँ आए हैं। प्रभु के वियोग की अग्नि से उनका शरीर संतप्त है॥2
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी॥
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन॥3
सभी लोग मन में उदासदीन और दुःखी हैं। सासुओं को दूसरी ही सूरत में देखा। सीताजी का स्वप्न सुनकर श्री रामचंद्रजी के नेत्रों में जल भर गया और सबको सोच से छुड़ा देने वाले प्रभु स्वयं (लीला सेसोच के वश हो गए॥3
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई॥
अस कहि बंधु समेत नहाने पूजि पुरारि साधु सनमाने॥4
(और बोले-) लक्ष्मणयह स्वप्न अच्छा नहीं है। कोई भीषण कुसमाचार (बहुत ही बुरी खबरसुनावेगा। ऐसा कहकर उन्होंने भाई सहित स्नान किया और त्रिपुरारी महादेवजी का पूजन करके साधुओं का सम्मान किया॥4
छंद :
सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उतर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे॥
देवताओं का सम्मान (पूजनऔर मुनियों की वंदना करके श्री रामचंद्रजी बैठ गए और उत्तर दिशा की ओर देखने लगे। आकाश में धूल छा रही हैबहुत से पक्षी और पशु व्याकुल होकर भागे हुए प्रभु के आश्रम को आ रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु श्री रामचंद्रजी यह देखकर उठे और सोचने लगे कि क्या कारण हैवे चित्त में आश्चर्ययुक्त हो गए। उसी समय कोल-भीलों ने आकर सब समाचार कहे।
सोरठा :
सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥226
तुलसीदासजी कहते हैं कि सुंदर मंगल वचन सुनते ही श्री रामचंद्रजी के मन में बड़ा आनंद हुआ। शरीर में पुलकावली छा गई और शरद् ऋतु के कमल के समान नेत्र प्रेमाश्रुओं से भर गए॥226
चौपाई :
बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी॥1
सीतापति श्री रामचंद्रजी पुनः सोच के वश हो गए कि भरत के आने का क्या कारण हैफिर एक ने आकर ऐसा कहा कि उनके साथ में बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना भी है॥1
सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं॥2
यह सुनकर श्री रामचंद्रजी को अत्यंत सोच हुआ। इधर तो पिता के वचन और उधर भाई भरतजी का संकोचभरतजी के स्वभाव को मन में समझकर तो प्रभु श्री रामचंद्रजी चित्त को ठहराने के लिए कोई स्थान ही नहीं पाते हैं॥2
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥3
तब यह जानकर समाधान हो गया कि भरत साधु और सयाने हैं तथा मेरे कहने में (आज्ञाकारीहैं। लक्ष्मणजी ने देखा कि प्रभु श्री रामजी के हृदय में चिंता है तो वे समय के अनुसार अपना नीतियुक्त विचार कहने लगे-3
बिनु पूछें कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाईं॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥4
हे स्वामीआपके बिना ही पूछे मैं कुछ कहता हूँसेवक समय पर ढिठाई करने से ढीठ नहीं समझा जाता (अर्थात्‌ आप पूछें तब मैं कहूँऐसा अवसर नहीं हैइसलिए यह मेरा कहना ढिठाई नहीं होगा)। हे स्वामीआप सर्वज्ञों में शिरोमणि हैं (सब जानते ही हैं)। मैं सेवक तो अपनी समझ की बात कहता हूँ॥4
दोहा :
नाथ सुहृद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥227
हे नाथआप परम सुहृद् (बिना ही कारण परम हित करने वाले), सरल हृदय तथा शील और स्नेह के भंडार हैंआपका सभी पर प्रेम और विश्वास हैऔर अपने हृदय में सबको अपने ही समान जानते हैं॥227
चौपाई :
बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना॥1
परंतु मूढ़ विषयी जीव प्रभुता पाकर मोहवश अपने असली स्वरूप को प्रकट कर देते हैं। भरत नीतिपरायणसाधु और चतुर हैं तथा प्रभु (आपके चरणों में उनका प्रेम हैइस बात को सारा जगत्‌ जानता है॥1
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई॥
कुटिल कुबंधु कुअवसरु ताकी। जानि राम बनबास एकाकी॥2
वे भरतजी आज श्री रामजी (आपका पद (सिंहासन या अधिकारपाकर धर्म की मर्यादा को मिटाकर चले हैं। कुटिल खोटे भाई भरत कुसमय देखकर और यह जानकर कि रामजी (आपवनवास में अकेले (असहायहैं,2
करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू॥
कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥3
अपने मन में बुरा विचार करकेसमाज जोड़कर राज्यों को निष्कण्टक करने के लिए यहाँ आए हैं। करोड़ों (अनेकोंप्रकार की कुटिलताएँ रचकर सेना बटोरकर दोनों भाई आए हैं॥3
जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥4
यदि इनके हृदय में कपट और कुचाल न होतीतो रथघोड़े और हाथियों की कतार (ऐसे समयकिसे सुहातीपरन्तु भरत को ही व्यर्थ कौन दोष देराजपद पा जाने पर सारा जगत्‌ ही पागल (मतवालाहो जाता है॥4


दोहा :
ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान॥228
चंद्रमा गुरुपत्नी गामी हुआराजा नहुष ब्राह्मणों की पालकी पर चढ़ा और राजा वेन के समान नीच तो कोई नहीं होगाजो लोक और वेद दोनों से विमुख हो गया॥228
चौपाई :
सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काउ॥1
सहस्रबाहुदेवराज इंद्र और त्रिशंकु आदि किसको राजमद ने कलंक नहीं दियाभरत ने यह उपाय उचित ही किया हैक्योंकि शत्रु और ऋण को कभी जरा भी शेष नहीं रखना चाहिए॥1
एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई॥
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी॥2
हाँभरत ने एक बात अच्छी नहीं कीजो रामजी (आपको असहाय जानकर उनका निरादर कियापर आज संग्राम में श्री रामजी (आपका क्रोधपूर्ण मुख देखकर यह बात भी उनकी समझ में विशेष रूप से आ जाएगी (अर्थात्‌ इस निरादर का फल भी वे अच्छी तरह पा जाएँगे)2
एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला॥
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी॥3
इतना कहते ही लक्ष्मणजी नीतिरस भूल गए और युद्धरस रूपी वृक्ष पुलकावली के बहाने से फूल उठा (अर्थात्‌ नीति की बात कहते-कहते उनके शरीर में वीर रस छा गया)। वे प्रभु श्री रामचंद्रजी के चरणों की वंदना करकेचरण रज को सिर पर रखकर सच्चा और स्वाभाविक बल कहते हुए बोले॥3
अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें॥4
हे नाथमेरा कहना अनुचित न मानिएगा। भरत ने हमें कम नहीं प्रचारा है (हमारे साथ कम छेड़छाड़ नहीं की है)। आखिर कहाँ तक सहा जाए और मन मारे रहा जाएजब स्वामी हमारे साथ हैं और धनुष हमारे हाथ में है!4
दोहा :
छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥229
क्षत्रिय जातिरघुकुल में जन्म और फिर मैं श्री रामजी (आपका अनुगामी (सेवकहूँयह जगत्‌ जानता है। (फिर भला कैसे सहा जाए?) धूल के समान नीच कौन हैपरन्तु वह भी लात मारने पर सिर ही चढ़ती है॥229
चौपाई :
उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥1
यों कहकर लक्ष्मणजी ने उठकरहाथ जोड़कर आज्ञा माँगी। मानो वीर रस सोते से जाग उठा हो। सिर पर जटा बाँधकर कमर में तरकस कस लिया और धनुष को सजाकर तथा बाण को हाथ में लेकर कहा-1
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ॥
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥2
आज मैं श्री राम (आपका सेवक होने का यश लूँ और भरत को संग्राम में शिक्षा दूँ। श्री रामचंद्रजी (आपके निरादर का फल पाकर दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्नरण शय्या पर सोवें॥2
आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥3
अच्छा हुआ जो सारा समाज आकर एकत्र हो गया। आज मैं पिछला सब क्रोध प्रकट करूँगा। जैसे सिंह हाथियों के झुंड को कुचल डालता है और बाज जैसे लवे को लपेट में ले लेता है॥3
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता॥
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥4
वैसे ही भरत को सेना समेत और छोटे भाई सहित तिरस्कार करके मैदान में पछाड़ूँगा। यदि शंकरजी भी आकर उनकी सहायता करेंतो भीमुझे रामजी की सौगंध हैमैं उन्हें युद्ध में (अवश्यमार डालूँगा (छोड़ूँगा नहीं)4
दोहा :
अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान॥230
लक्ष्मणजी को अत्यंत क्रोध से तमतमाया हुआ देखकर और उनकी प्रामाणिक (सत्यसौगंध सुनकर सब लोग भयभीत हो जाते हैं और लोकपाल घबड़ाकर भागना चाहते हैं॥230
चौपाई :
जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥1
सारा जगत्‌ भय में डूब गया। तब लक्ष्मणजी के अपार बाहुबल की प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी हुईहे ताततुम्हारे प्रताप और प्रभाव को कौन कह सकता है और कौन जान सकता है?1
अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ।
सहसा करि पाछे पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥2
परन्तु कोई भी काम होउसे अनुचित-उचित खूब समझ-बूझकर किया जाए तो सब कोई अच्छा कहते हैं। वेद और विद्वान कहते हैं कि जो बिना विचारे जल्दी में किसी काम को करके पीछे पछताते हैंवे बुद्धिमान्‌ नहीं हैं॥2

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