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नारद का अभिमान और माया का प्रभाव


दोहा :
संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127
यद्यपि शिवजी ने यह हित की शिक्षा दीपर नारदजी को वह अच्छी न लगी। हे भरद्वाजअब कौतुक (तमाशासुनो। हरि की इच्छा बड़ी बलवान है॥127
चौपाई :
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥1
श्री रामचन्द्रजी जो करना चाहते हैंवही होता हैऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। श्री शिवजी के वचन नारदजी के मन को अच्छे नहीं लगेतब वे वहाँ सेब्रह्मलोक को चल दिए॥1
एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥2
एक बार गानविद्या में निपुण मुनिनाथ नारदजी हाथ में सुंदर वीणा लिएहरिगुण गाते हुए क्षीरसागर को गएजहाँ वेदों के मस्तकस्वरूप (मूर्तिमान वेदांतत्व)लक्ष्मी निवास भगवान नारायण रहते हैं॥2
हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥3
रमानिवास भगवान उठकर बड़े आनंद से उनसे मिले और ऋषि (नारदजीके साथ आसन पर बैठ गए। चराचर के स्वामी भगवान हँसकर बोलेहे मुनिआज आपने बहुत दिनों पर दया की॥3
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥4
यद्यपि श्री शिवजी ने उन्हें पहले से ही बरज रखा थातो भी नारदजी ने कामदेव का सारा चरित्र भगवान को कह सुनाया। श्री रघुनाथजी की माया बड़ी ही प्रबल है। जगत में ऐसा कौन जन्मा हैजिसे वे मोहित न कर दें॥4
दोहा :
रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥128
भगवान रूखा मुँह करके कोमल वचन बोलेहे मुनिराजआपका स्मरण करने से दूसरों के मोहकाममद और अभिमान मिट जाते हैं (फिर आपके लिए तो कहना ही क्या है!)128
चौपाई :
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥1
हे मुनि! सुनिएमोह तो उसके मन में होता हैजिसके हृदय में ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्यव्रत में तत्पर और बड़े धीर बुद्धि हैं। भलाकहीं आपको भीकामदेव सता सकता है?1
नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥2
नारदजी ने अभिमान के साथ कहाभगवनयह सब आपकी कृपा है। करुणानिधान भगवान ने मन में विचारकर देखा कि इनके मन में गर्व के भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है॥2
बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई॥3
मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेंकूँगाक्योंकि सेवकों का हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही वह उपाय करूँगाजिससे मुनि का कल्याण और मेरा खेल हो॥3
तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥4
तब नारदजी भगवान के चरणों में सिर नवाकर चले। उनके हृदय में अभिमान और भी बढ़ गया। तब लक्ष्मीपति भगवान ने अपनी माया को प्रेरित किया। अब उसकी कठिन करनी सुनो॥4
दोहा :
बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥129
उस (हरिमाया) ने रास्ते में सौ योजन (चार सौ कोसका एक नगर रचा। उस नगर की भाँति-भाँति की रचनाएँ लक्ष्मीनिवास भगवान विष्णु के नगर (वैकुण्ठसे भी अधिक सुंदर थीं॥129
चौपाई :
बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥1
उस नगर में ऐसे सुंदर नर-नारी बसते थेमानो बहुत से कामदेव और (उसकी स्त्रीरति ही मनुष्य शरीर धारण किए हुए हों। उस नगर में शीलनिधि नाम का राजा रहता थाजिसके यहाँ असंख्य घोड़ेहाथी और सेना के समूह (टुकड़ियाँथे॥1
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥2
उसका वैभव और विलास सौ इन्द्रों के समान था। वह रूपतेजबल और नीति का घर था। उसके विश्वमोहिनी नाम की एक (ऐसी रूपवतीकन्या थीजिसके रूप को देखकर लक्ष्मीजी भी मोहित हो जाएँ॥ 2
सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥3
वह सब गुणों की खान भगवान की माया ही थी। उसकी शोभा का वर्णन कैसे किया जा सकता है। वह राजकुमारी स्वयंवर करना चाहती थीइससे वहाँ अगणित राजा आए हुए थे॥3
मुनि कौतुकी नगर तेहि गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥4
खिलवाड़ी मुनि नारदजी उस नगर में गए और नगरवासियों से उन्होंने सब हाल पूछा। सब समाचार सुनकर वे राजा के महल में आए। राजा ने पूजा करके मुनि को(आसन पर) बैठाया॥4

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