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मंगलाचरण


श्रीगणेशाय नमः ॥

श्रीजानकीवल्लभो विजयते


श्लोक 
यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्व: सर्वगत: शिव: शशिनिभ: श्री शंकर: पातु माम् ॥1 
जिनकी गोद में हिमाचलसुता पार्वतीजीमस्तक पर गंगाजीललाट पर द्वितीया का चन्द्रमाकंठ में हलाहल विष और वक्षःस्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैंवे भस्म से विभूषितदेवताओं में श्रेष्ठसर्वेश्वरसंहारकर्ता (या भक्तों के पापनाशक)सर्वव्यापककल्याण रूपचन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण श्री शंकरजी सदा मेरी रक्षा करें॥1
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥2
रघुकुल को आनंद देने वाले श्री रामचन्द्रजी के मुखारविंद की जो शोभा राज्याभिषेक से (राज्याभिषेक की बात सुनकर) न तो प्रसन्नता को प्राप्त हुई और न वनवास के दुःख से मलिन ही हुईवह (मुखकमल की छबि) मेरे लिए सदा सुंदर मंगलों की देने वाली हो॥2
निलांबुजश्यामलकोमलांग सीता समारोपित वामभागम्।
पाणौ महा सायक चारु चापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥
नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अंग हैंश्री सीताजी जिनके वाम भाग में विराजमान हैं और जिनके हाथों में (क्रमशः) अमोघ बाण और सुंदर धनुष हैउन रघुवंश के स्वामी श्री रामचन्द्रजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥3
दोहा :
श्री गुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
श्री गुरुजी के चरण कमलों की रज से अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके मैं श्री रघुनाथजी के उस निर्मल यश का वर्णन करता हूँजो चारों फलों को (धर्मअर्थ,काममोक्ष को) देने वाला है।
चौपाई :
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥1
जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आएतब से (अयोध्या में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं। चौदहों लोक रूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं॥1
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥2
ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति रूपी सुहावनी नदियाँ उमड़-उमड़कर अयोध्या रूपी समुद्र में आ मिलीं। नगर के स्त्री-पुरुष अच्छी जाति के मणियों के समूह हैंजो सब प्रकार से पवित्रअमूल्य और सुंदर हैं॥2
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥3
नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता। ऐसा जान पड़ता हैमानो ब्रह्माजी की कारीगरी बस इतनी ही है। सब नगर निवासी श्री रामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं॥3
मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥4
सब माताएँ और सखी-सहेलियाँ अपनी मनोरथ रूपी बेल को फली हुई देखकर आनंदित हैं। श्री रामचन्द्रजी के रूपगुणशील और स्वभाव को देख-सुनकर राजा दशरथजी बहुत ही आनंदित होते हैं॥4

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