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कामदेव का देवकार्य के लिए जाना और भस्म होना


दोहा :
सुरन्ह कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।
संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥83
देवताओं ने कामदेव से अपनी सारी विपत्ति कही। सुनकर कामदेव ने मन में विचार किया और हँसकर देवताओं से यों कहा कि शिवजी के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है॥83
चौपाई :
तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥1
तथापि मैं तुम्हारा काम तो करूँगाक्योंकि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे के हित के लिए अपना शरीर त्याग देता हैसंत सदा उसकी बड़ाई करते हैं॥1
अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुब मरनु हमारा॥2
यों कह और सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर (वसन्तादिसहायकों के साथ चला। चलते समय कामदेव ने हृदय में ऐसा विचार किया कि शिवजी के साथ विरोध करने से मेरा मरण निश्चित है॥2
तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥3
तब उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय उस मछली के चिह्न की ध्वजा वाले कामदेव ने कोप कियाउस समय क्षणभर में ही वेदों की सारी मर्यादा मिट गई॥3
ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सबु भागा॥4
ब्रह्मचर्यनियमनाना प्रकार के संयमधीरजधर्मज्ञानविज्ञानसदाचारजपयोगवैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गई॥4
छंद :
भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥ 
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
विवेक अपने सहायकों सहित भाग गयाउसके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा गए। उस समय वे सब सद्ग्रन्थ रूपी पर्वत की कन्दराओं में जा छिपे (अर्थात ज्ञान,वैराग्यसंयमनियमसदाचारादि ग्रंथों में ही लिखे रह गएउनका आचरण छूट गया) सारे जगत्‌ में खलबली मच गई (और सब कहने लगेहे विधाताअब क्या होने वाला हैहमारी रक्षा कौन करेगाऐसा दो सिर वाला कौन हैजिसके लिए रति के पति कामदेव ने कोप करके हाथ में धनुष-बाण उठाया है?
दोहा :
जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥84
जगत में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थेवे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गए॥84

चौपाई :
सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥1
सबके हृदय में काम की इच्छा हो गई। लताओं (बेलोंको देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़कर समुद्र की ओर दौड़ीं और ताल-तलैयाँ भी आपस में संगम करने (मिलने-जुलनेलगीं॥1
जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥2
जब जड़ (वृक्षनदी आदिकी यह दशा कही गईतब चेतन जीवों की करनी कौन कह सकता हैआकाशजल और पृथ्वी पर विचरने वाले सारे पशु-पक्षी (अपने संयोग कासमय भुलाकर काम के वश में हो गए॥2
मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥3
सब लोक कामान्ध होकर व्याकुल हो गए। चकवा-चकवी रात-दिन नहीं देखते। देवदैत्यमनुष्यकिन्नरसर्पप्रेतपिशाचभूतबेताल-3
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥4
ये तो सदा ही काम के गुलाम हैंयह समझकर मैंने इनकी दशा का वर्णन नहीं किया। सिद्धविरक्तमहामुनि और महान्‌ योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री के विरही हो गए॥4
छंद :
भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥ 
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
जब योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो गएतब पामर मनुष्यों की कौन कहेजो समस्त चराचर जगत को ब्रह्ममय देखते थेवे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रियाँ सारे संसार को पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ब्राह्मण्ड के अंदर कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक (तमाशारहा।
सोरठा :
धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85
किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण कियाकामदेव ने सबके मन हर लिए। श्री रघुनाथजी ने जिनकी रक्षा कीकेवल वे ही उस समय बचे रहे॥85
चौपाई :
उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥
सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1
दो घड़ी तक ऐसा तमाशा हुआजब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। शिवजी को देखकर कामदेव डर गयातब सारा संसार फिर जैसा-का तैसा स्थिर हो गया।
भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥2
तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गएजैसे मतवाले (नशा पिए हुएलोग मद (नशाउतर जाने पर सुखी होते हैं। दुराधर्ष (जिनको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन हैऔर दुर्गम (जिनका पार पाना कठिन हैभगवान (सम्पूर्ण ऐश्वर्यधर्मयशश्रीज्ञान और वैराग्य रूप छह ईश्वरीय गुणों से युक्तरुद्र (महाभयंकर)शिवजी को देखकर कामदेव भयभीत हो गया॥2
फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥3
लौट जाने में लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय करके उसने उपाय रचा। तुरंत ही सुंदर ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया। फूले हुए नए-नए वृक्षों की कतारें सुशोभित हो गईं॥3
बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥4
वन-उपवनबावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुंदर हो गए। जहाँ-तहाँ मानो प्रेम उम़ड़ रहा हैजिसे देखकर मरे मनों में भी कामदेव जाग उठा॥4
छंद :
जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥ 
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा
मरे हुए मन में भी कामदेव जागने लगावन की सुंदरता कही नहीं जा सकती। कामरूपी अग्नि का सच्चा मित्र शीतल-मन्द-सुगंधित पवन चलने लगा। सरोवरों में अनेकों कमल खिल गएजिन पर सुंदर भौंरों के समूह गुंजार करने लगे। राजहंसकोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर नाचने लगीं॥
दोहा :
सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥86
कामदेव अपनी सेना समेत करोड़ों प्रकार की सब कलाएँ (उपाएकरके हार गयापर शिवजी की अचल समाधि न डिगी। तब कामदेव क्रोधित हो उठा॥86
चौपाई :
देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥
सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥1
आम के वृक्ष की एक सुंदर डाली देखकर मन में क्रोध से भरा हुआ कामदेव उस पर चढ़ गया। उसने पुष्प धनुष पर अपने (पाँचोंबाण चढ़ाए और अत्यन्त क्रोध से(लक्ष्य की ओर) ताककर उन्हें कान तक तान लिया॥1
छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे॥
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥2
कामदेव ने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़ेजो शिवजी के हृदय में लगे। तब उनकी समाधि टूट गई और वे जाग गए। ईश्वर (शिवजीके मन में बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा॥2
सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥
तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवन कामु भयउ जरि छारा॥3
जब आम के पत्तों में (छिपे हुएकामदेव को देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआजिससे तीनों लोक काँप उठे। तब शिवजी ने तीसरा नेत्र खोलाउनको देखते ही कामदेवजलकर भस्म हो गया॥3
हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥
समुझि कामसुख सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥4
जगत में बड़ा हाहाकर मच गया। देवता डर गएदैत्य सुखी हुए। भोगी लोग कामसुख को याद करके चिन्ता करने लगे और साधक योगी निष्कंटक हो गए॥4
छंद :
जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई॥ 
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥
योगी निष्कंटक हो गएकामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही मूर्च्छित हो गई। रोती-चिल्लाती और भाँति-भाँति से करुणा करती हुई वह शिवजी के पास गई। अत्यन्त प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई। शीघ्र प्रसन्न होने वाले कृपालु शिवजी अबला (असहाय स्त्रीको देखकर सुंदर (उसको सान्त्वना देने वालेवचन बोले।

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