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श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का यज्ञशाला में प्रवेश


चौपाई :
सीय स्वयंबरू देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥1
चलकर सीताजी के स्वयंवर को देखना चाहिए। देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं। लक्ष्मणजी ने कहाहे नाथजिस पर आपकी कृपा होगीवही बड़ाई का पात्र होगा(धनुष तोड़ने का श्रेय उसी को प्राप्त होगा)1
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥2
इस श्रेष्ठ वाणी को सुनकर सब मुनि प्रसन्न हुए। सभी ने सुख मानकर आशीर्वाद दिया। फिर मुनियों के समूह सहित कृपालु श्री रामचन्द्रजी धनुष यज्ञशाला देखने चले॥2
रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥3
दोनों भाई रंगभूमि में आए हैंऐसी खबर जब सब नगर निवासियों ने पाईतब बालकजवानबूढ़ेस्त्रीपुरुष सभी घर और काम-काज को भुलाकर चल दिए॥3
देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू॥4
जब जनकजी ने देखा कि बड़ी भीड़ हो गई हैतब उन्होंने सब विश्वासपात्र सेवकों को बुलवा लिया और कहातुम लोग तुरंत सब लोगों के पास जाओ और सब किसी को यथायोग्य आसन दो॥4
दोहा :
कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥240
उन सेवकों ने कोमल और नम्र वचन कहकर उत्तममध्यमनीच और लघु (सभी श्रेणी के) स्त्री-पुरुषों को अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठाया॥240
चौपाई :
राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥1
उसी समय राजकुमार (राम और लक्ष्मणवहाँ आए। (वे ऐसे सुंदर हैंमानो साक्षात मनोहरता ही उनके शरीरों पर छा रही हो। सुंदर साँवला और गोरा उनका शरीर है। वे गुणों के समुद्रचतुर और उत्तम वीर हैं॥1
राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥2
वे राजाओं के समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैंमानो तारागणों के बीच दो पूर्ण चन्द्रमा हों। जिनकी जैसी भावना थीप्रभु की मूर्ति उन्होंने वैसी ही देखी॥2
देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥3
महान रणधीर (राजा लोगश्री रामचन्द्रजी के रूप को ऐसा देख रहे हैंमानो स्वयं वीर रस शरीर धारण किए हुए हों। कुटिल राजा प्रभु को देखकर डर गएमानो बड़ी भयानक मूर्ति हो॥3
रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥4
छल से जो राक्षस वहाँ राजाओं के वेष में (बैठेथेउन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा। नगर निवासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों के भूषण रूप औरनेत्रों को सुख देने वाला देखा॥4
दोहा :
नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज-निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥241
स्त्रियाँ हृदय में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें देख रही हैं। मानो श्रृंगार रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किए सुशोभित हो रहा हो॥241
चौपाई :
बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसें। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥1
विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिएजिसके बहुत से मुँहहाथपैरनेत्र और सिर हैं। जनकजी के सजातीय (कुटुम्बीप्रभु को किस तरह (कैसे प्रिय रूप में)देख रहे हैंजैसे सगे सजन (संबंधीप्रिय लगते हैं॥1
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥2
जनक समेत रानियाँ उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैंउनकी प्रीति का वर्णन नहीं किया जा सकता। योगियों को वे शांतशुद्धसम और स्वतः प्रकाश परम तत्व के रूप में दिखे॥2
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥3
हरि भक्तों ने दोनों भाइयों को सब सुखों के देने वाले इष्ट देव के समान देखा। सीताजी जिस भाव से श्री रामचन्द्रजी को देख रही हैंवह स्नेह और सुख तो कहने में हीनहीं आता॥3
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥4
उस (स्नेह और सुखका वे हृदय में अनुभव कर रही हैंपर वे भी उसे कह नहीं सकतीं। फिर कोई कवि उसे किस प्रकार कह सकता है। इस प्रकार जिसका जैसा भाव थाउसने कोसलाधीश श्री रामचन्द्रजी को वैसा ही देखा॥4
दोहा :
राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥242
सुंदर साँवले और गोरे शरीर वाले तथा विश्वभर के नेत्रों को चुराने वाले कोसलाधीश के कुमार राज समाज में (इस प्रकारसुशोभित हो रहे हैं॥242
चौपाई :
सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥1
दोनों मूर्तियाँ स्वभाव से ही (बिना किसी बनाव-श्रृंगार केमन को हरने वाली हैं। करोड़ों कामदेवों की उपमा भी उनके लिए तुच्छ है। उनके सुंदर मुख शरद्(पूर्णिमाके चन्द्रमा की भी निंदा करने वाले (उसे नीचा दिखाने वालेहैं और कमल के समान नेत्र मन को बहुत ही भाते हैं॥1
चितवनि चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहिं बरनी॥
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥2
सुंदर चितवन (सारे संसार के मन को हरने वालेकामदेव के भी मन को हरने वाली है। वह हृदय को बहुत ही प्यारी लगती हैपर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सुंदर गाल हैंकानों में चंचल (झूमते हुएकुंडल हैं। ठोड़ और अधर (होठसुंदर हैंकोमल वाणी है॥2
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥3
हँसीचन्द्रमा की किरणों का तिरस्कार करने वाली है। भौंहें टेढ़ी और नासिका मनोहर है। (ऊँचेचौड़े ललाट पर तिलक झलक रहे हैं (दीप्तिमान हो रहे हैं)। (कालेघुँघरालेबालों को देखकर भौंरों की पंक्तियाँ भी लजा जाती हैं॥3
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाईं। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥4
पीली चौकोनी टोपियाँ सिरों पर सुशोभित हैंजिनके बीच-बीच में फूलों की कलियाँ बनाई (काढ़ीहुई हैं। शंख के समान सुंदर (गोलगले में मनोहर तीन रेखाएँ हैं,जो मानो तीनों लोकों की सुंदरता की सीमा (को बता रहीहैं॥4
दोहा :
कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243
हृदयों पर गजमुक्ताओं के सुंदर कंठे और तुलसी की मालाएँ सुशोभित हैं। उनके कंधे बैलों के कंधे की तरह (ऊँचे तथा पुष्टहैंऐंड़ (खड़े होने की शानसिंह की सी है और भुजाएँ विशाल एवं बल की भंडार हैं॥243
चौपाई :
कटि तूनीर पीत पट बाँधें। कर सर धनुष बाम बर काँधें॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥1
कमर में तरकस और पीताम्बर बाँधे हैं। (दाहिनेहाथों में बाण और बाएँ सुंदर कंधों पर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत (जनेऊसुशोभित हैं। नख से लेकर शिखा तक सब अंग सुंदर हैंउन पर महान शोभा छाई हुई है॥1
देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥2
उन्हें देखकर सब लोग सुखी हुए। नेत्र एकटक (निमेष शून्यहैं और तारे (पुतलियाँभी नहीं चलते। जनकजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए। तब उन्होंने जाकर मुनि के चरण कमल पकड़ लिए॥2
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥3
विनती करके अपनी कथा सुनाई और मुनि को सारी रंगभूमि (यज्ञशालादिखलाई। (मुनि के साथ) दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जहाँ-जहाँ जाते हैंवहाँ-वहाँ सब कोई आश्चर्यचकित हो देखने लगते हैं॥3
निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥4
सबने रामजी को अपनी-अपनी ओर ही मुख किए हुए देखापरन्तु इसका कुछ भी विशेष रहस्य कोई नहीं जान सका। मुनि ने राजा से कहारंगभूमि की रचना बड़ी सुंदर है (विश्वामित्रजैसे निःस्पृहविरक्त और ज्ञानी मुनि से रचना की प्रशंसा सुनकरराजा प्रसन्न हुए और उन्हें बड़ा सुख मिला॥4
दोहा :
सब मंचन्ह तें मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥244
सब मंचों से एक मंच अधिक सुंदरउज्ज्वल और विशाल था। (स्वयंराजा ने मुनि सहित दोनों भाइयों को उस पर बैठाया॥244
चौपाई :
प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे। जनु राकेश उदय भएँ तारे॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥1
प्रभु को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए (निराश एवं उत्साहहीन हो गए) जैसे पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं। (उनके तेज को देखकरसबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्रजी ही धनुष को तोड़ेंगेइसमें संदेह नहीं॥1
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥2
(इधर उनके रूप को देखकर सबके मन में यह निश्चय हो गया किशिवजी के विशाल धनुष को (जो संभव है न टूट सकेबिना तोड़े भी सीताजी श्री रामचन्द्रजी के ही गले में जयमाला डालेंगी (अर्थात दोनों तरह से ही हमारी हार होगी और विजय रामचन्द्रजी के हाथ रहेगी)। (यों सोचकर वे कहने लगेहे भाईऐसा विचारकरयशप्रतापबल और तेज गँवाकर अपने-अपने घर चलो॥2
बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥3
दूसरे राजाजो अविवेक से अंधे हो रहे थे और अभिमानी थेयह बात सुनकर बहुत हँसे। (उन्होंने कहाधनुष तोड़ने पर भी विवाह होना कठिन है (अर्थात सहज ही में हम जानकी को हाथ से जाने नहीं देंगे)फिर बिना तोड़े तो राजकुमारी को ब्याह ही कौन सकता है॥3
एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
यह सुनि अवर महिप मुसुकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥4
काल ही क्यों न होएक बार तो सीता के लिए उसे भी हम युद्ध में जीत लेंगे। यह घमंड की बात सुनकर दूसरे राजाजो धर्मात्माहरिभक्त और सयाने थे,मुस्कुराए॥4
सोरठा :
सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥245
(उन्होंने कहा-) राजाओं के गर्व दूर करके (जो धनुष किसी से नहीं टूट सकेगा उसे तोड़कर) श्री रामचन्द्रजी सीताजी को ब्याहेंगे। (रही युद्ध की बातसोमहाराजदशरथ के रण में बाँके पुत्रों को युद्ध में तो जीत ही कौन सकता है॥245
चौपाई :
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥1
गाल बजाकर व्यर्थ ही मत मरो। मन के लड्डुओं से भी कहीं भूख बुझती हैहमारी परम पवित्र (निष्कपटसीख को सुनकर सीताजी को अपने जी में साक्षात जगज्जननी समझो (उन्हें पत्नी रूप में पाने की आशा एवं लालसा छोड़ दो),1
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥2
और श्री रघुनाथजी को जगत का पिता (परमेश्वरविचार करनेत्र भरकर उनकी छबि देख लो (ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलेगा)। सुंदरसुख देने वाले और समस्त गुणों की राशि ये दोनों भाई शिवजी के हृदय में बसने वाले हैं (स्वयं शिवजी भी जिन्हें सदा हृदय में छिपाए रखते हैंवे तुम्हारे नेत्रों के सामने आ गएहैं)2
सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
करहु जाइ जा कहुँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥3
समीप आए हुए (भगवत्‍दर्शन रूपअमृत के समुद्र को छोड़कर तुम (जगज्जननी जानकी को पत्नी रूप में पाने की दुराशा रूप मिथ्यामृगजल को देखकर दौड़कर क्यों मरते होफिर (भाई!) जिसको जो अच्छा लगेवही जाकर करो। हमने तो (श्री रामचन्द्रजी के दर्शन करकेआज जन्म लेने का फल पा लिया (जीवन और जन्म को सफल कर लिया)3
अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥4
ऐसा कहकर अच्छे राजा प्रेम मग्न होकर श्री रामजी का अनुपम रूप देखने लगे। (मनुष्यों की तो बात ही क्यादेवता लोग भी आकाश से विमानों पर चढ़े हुए दर्शन कर रहे हैं और सुंदर गान करते हुए फूल बरसा रहे हैं॥4

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