Read श्रीरामचरितमानस in your own script

Roman(Eng) ગુજરાતી বাংগ্লা ਗੁਰਮੁਖੀ తెలుగు தமிழ் ಕನ್ನಡ മലയാളം हिन्दी

अहल्या उद्धार


आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥6
मार्ग में एक आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पशु-पक्षीको भी जीव-जन्तु नहीं था। पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछातब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही॥6
दोहा :
गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210
गौतम मुनि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है। हे रघुवीरइस पर कृपा कीजिए॥210
छन्द :
परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥ 
अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1
श्री रामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी कोदेखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठामुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओंकी धारा बहने लगी॥1
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥ 
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥2
फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथजी की कृपा से भक्ति प्राप्त की। तब अत्यन्त निर्मल वाणी से उसने (इस प्रकारस्तुति प्रारंभ की-हे ज्ञान से जानने योग्य श्री रघुनाथजीआपकी जय होमैं (सहज हीअपवित्र स्त्री हूँऔर हे प्रभोआप जगत को पवित्र करने वालेभक्तों को सुख देने वाले और रावण के शत्रु हैं। हे कमलनयनहे संसार (जन्म-मृत्युके भय से छुड़ाने वालेमैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरीरक्षा कीजिएरक्षा कीजिए॥2
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना॥ 
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥3
मुनि ने जो मुझे शाप दियासो बहुत ही अच्छा किया। मैं उसे अत्यन्त अनुग्रह (करके) मानती हूँ कि जिसके कारण मैंने संसार से छुड़ाने वाले श्री हरि (आपकोनेत्र भरकर देखा। इसी (आपके दर्शनको शंकरजी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं। हे प्रभोमैं बुद्धि की बड़ी भोली हूँमेरी एक विनती है। हे नाथ मैं और कोई वर नहीं माँगतीकेवल यही चाहती हूँ कि मेरा मन रूपी भौंरा आपके चरण-कमल की रज के प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे॥3
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥ 
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी॥4
जिन चरणों से परमपवित्र देवनदी गंगाजी प्रकट हुईंजिन्हें शिवजी ने सिर पर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्माजी पूजते हैंकृपालु हरि (आपने उन्हीं को मेरे सिर पर रखा। इस प्रकार (स्तुति करती हुईबार-बार भगवान के चरणों में गिरकरजो मन को बहुत ही अच्छा लगाउस वर को पाकर गौतम की स्त्री अहल्या आनंद में भरी हुई पतिलोक को चली गई॥4



दोहा :
अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥211
प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऐसे दीनबंधु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं। तुलसीदासजी कहते हैंहे शठ (मन)! तू कपट-जंजाल छोड़कर उन्हीं का भजन कर॥211
मासपारायणसातवाँ विश्राम

Followers/ Subscribers