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श्री राम-लक्ष्मण का जनकपुर निरीक्षण


दोहा :
जाइ देखि आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥218
सुख के निधान दोनों भाई जाकर नगर देख आओ। अपने सुंदर मुख दिखलाकर सब (नगर निवासियोंके नेत्रों को सफल करो॥218
चौपाई :
मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥
बालक बृंद देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥1
सब लोकों के नेत्रों को सुख देने वाले दोनों भाई मुनि के चरणकमलों की वंदना करके चले। बालकों के झुंड इन (के सौंदर्यकी अत्यन्त शोभा देखकर साथ लग गए। उनके नेत्र और मन (इनकी माधुरी परलुभा गए॥1
पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥2
(दोनों भाइयों केपीले रंग के वस्त्र हैंकमर के (पीलेदुपट्टों में तरकस बँधे हैं। हाथों में सुंदर धनुष-बाण सुशोभित हैं। (श्याम और गौर वर्ण केशरीरों के अनुकूल(अर्थात्‌ जिस पर जिस रंग का चंदन अधिक फबे उस पर उसी रंग केसुंदर चंदन की खौर लगी है। साँवरे और गोरे (रंगकी मनोहर जोड़ी है॥2
केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥3
सिंह के समान (पुष्टगर्दन (गले का पिछला भागहैविशाल भुजाएँ हैं। (चौड़ीछाती पर अत्यन्त सुंदर गजमुक्ता की माला है। सुंदर लाल कमल के समान नेत्र हैं।तीनों तापों से छुड़ाने वाला चन्द्रमा के समान मुख है॥3
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेख सोभा जनु चाँकी॥4
कानों में सोने के कर्णफूल (अत्यन्तशोभा दे रहे हैं और देखते ही (देखने वाले केचित्त को मानो चुरा लेते हैं। उनकी चितवन (दृष्टिबड़ी मनोहर है और भौंहें तिरछी एवं सुंदर हैं। (माथे परतिलक की रेखाएँ ऐसी सुंदर हैंमानो (मूर्तिमती) शोभा पर मुहर लगा दी गई है॥4

दोहा :
रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥219
सिर पर सुंदर चौकोनी टोपियाँ (दिएहैंकाले और घुँघराले बाल हैं। दोनों भाई नख से लेकर शिखा तक (एड़ी से चोटी तकसुंदर हैं और सारी शोभा जहाँ जैसी चाहिए वैसी ही है॥219
चौपाई :
देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी॥1
जब पुरवासियों ने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिए आए हैंतब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मानो दरिद्री (धन काखजाना लूटने दौड़े हों॥1
निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥2
स्वभाव ही से सुंदर दोनों भाइयों को देखकर वे लोग नेत्रों का फल पाकर सुखी हो रहे हैं। युवती स्त्रियाँ घर के झरोखों से लगी हुई प्रेम सहित श्री रामचन्द्रजी के रूप को देख रही हैं॥2
कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥3
वे आपस में बड़े प्रेम से बातें कर रही हैंहे सखीइन्होंने करोड़ों कामदेवों की छबि को जीत लिया है। देवतामनुष्यअसुरनाग और मुनियों में ऐसी शोभा तो कहींसुनने में भी नहीं आती॥3
बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥
अपर देउ अस कोउ ना आही। यह छबि सखी पटतरिअ जाही॥4
भगवान विष्णु के चार भुजाएँ हैंब्रह्माजी के चार मुख हैंशिवजी का विकट (भयानकवेष है और उनके पाँच मुँह हैं। हे सखीदूसरा देवता भी कोई ऐसा नहीं है,जिसके साथ इस छबि की उपमा दी जाए॥4
दोहा :
बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥220
इनकी किशोर अवस्था हैये सुंदरता के घरसाँवले और गोरे रंग के तथा सुख के धाम हैं। इनके अंग-अंग पर करोड़ों-अरबों कामदेवों को निछावर कर देना चाहिए॥220
चौपाई :
कहहु सखी अस को तनु धारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥1
हे सखी! (भला) कहो तो ऐसा कौन शरीरधारी होगाजो इस रूप को देखकर मोहित न हो जाए (अर्थात यह रूप जड़-चेतन सबको मोहित करने वाला है)। (तबकोई दूसरी सखी प्रेम सहित कोमल वाणी से बोलीहे सयानीमैंने जो सुना है उसे सुनो-1
ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥2
ये दोनों (राजकुमारमहाराज दशरथजी के पुत्र हैंबाल राजहंसों का सा सुंदर जोड़ा है। ये मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करने वाले हैंइन्होंने युद्ध के मैदान में राक्षसों को मारा है॥2
स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥3
जिनका श्याम शरीर और सुंदर कमल जैसे नेत्र हैंजो मारीच और सुबाहु के मद को चूर करने वाले और सुख की खान हैं और जो हाथ में धनुष-बाण लिए हुए हैंवे कौसल्याजी के पुत्र हैंइनका नाम राम है॥3
गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥4
जिनका रंग गोरा और किशोर अवस्था है और जो सुंदर वेष बनाए और हाथ में धनुष-बाण लिए श्री रामजी के पीछे-पीछे चल रहे हैंवे इनके छोटे भाई हैंउनका नाम लक्ष्मण है। हे सखीसुनोउनकी माता सुमित्रा हैं॥4
दोहा :
बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥221
दोनों भाई ब्राह्मण विश्वामित्र का काम करके और रास्ते में मुनि गौतम की स्त्री अहल्या का उद्धार करके यहाँ धनुषयज्ञ देखने आए हैं। यह सुनकर सब स्त्रियाँप्रसन्न हुईं॥221
चौपाई :
देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥1
श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर कोई एक (दूसरी सखीकहने लगीयह वर जानकी के योग्य है। हे सखीयदि कहीं राजा इन्हें देख लेतो प्रतिज्ञा छोड़करहठपूर्वक इन्हीं से विवाह कर देगा॥1
कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥
सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥2
किसी ने कहा- राजा ने इन्हें पहचान लिया है और मुनि के सहित इनका आदरपूर्वक सम्मान किया हैपरंतु हे सखीराजा अपना प्रण नहीं छोड़ता। वह होनहार के वशीभूत होकर हठपूर्वक अविवेक का ही आश्रय लिए हुए हैं (प्रण पर अड़े रहने की मूर्खता नहीं छोड़ता)2
कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फल दाता॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥3
कोई कहती है- यदि विधाता भले हैं और सुना जाता है कि वे सबको उचित फल देते हैंतो जानकीजी को यही वर मिलेगा। हे सखीइसमें संदेह नहीं है॥3
जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥4
जो दैवयोग से ऐसा संयोग बन जाएतो हम सब लोग कृतार्थ हो जाएँ। हे सखीमेरे तो इसी से इतनी अधिक आतुरता हो रही है कि इसी नाते कभी ये यहाँ आवेंगे॥4
दोहा :
नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥222
नहीं तो (विवाह न हुआ तोहे सखीसुनोहमको इनके दर्शन दुर्लभ हैं। यह संयोग तभी हो सकता हैजब हमारे पूर्वजन्मों के बहुत पुण्य हों॥222
चौपाई :
बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबही का।
कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥1
दूसरी ने कहा- हे सखीतुमने बहुत अच्छा कहा। इस विवाह से सभी का परम हित है। किसी ने कहाशंकरजी का धनुष कठोर है और ये साँवले राजकुमार कोमल शरीर के बालक हैं॥1
सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥2
हे सयानीसब असमंजस ही है। यह सुनकर दूसरी सखी कोमल वाणी से कहने लगीहे सखीइनके संबंध में कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि ये देखने में तो छोटे हैंपर इनका प्रभाव बहुत बड़ा है॥2
परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
सो कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥3
जिनके चरणकमलों की धूलि का स्पर्श पाकर अहल्या तर गईजिसने बड़ा भारी पाप किया थावे क्या शिवजी का धनुष बिना तोड़े रहेंगे। इस विश्वास को भूलकर भी नहीं छोड़ना चाहिए॥3
जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं॥4
जिस ब्रह्मा ने सीता को सँवारकर (बड़ी चतुराई सेरचा हैउसी ने विचार कर साँवला वर भी रच रखा है। उसके ये वचन सुनकर सब हर्षित हुईं और कोमल वाणी से कहने लगींऐसा ही हो॥4
दोहा :
हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥223
सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों वाली स्त्रियाँ समूह की समूह हृदय में हर्षित होकर फूल बरसा रही हैं। जहाँ-जहाँ दोनों भाई जाते हैंवहाँ-वहाँ परम आनंद छा जाता है॥223
चौपाई :
पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥1
दोनों भाई नगर के पूरब ओर गएजहाँ धनुषयज्ञ के लिए (रंगभूमि बनाई गई थी। बहुत लंबा-चौड़ा सुंदर ढाला हुआ पक्का आँगन थाजिस पर सुंदर और निर्मल वेदी सजाई गई थी॥1
चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥2
चारों ओर सोने के बड़े-बड़े मंच बने थेजिन पर राजा लोग बैठेंगे। उनके पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानों का मंडलाकार घेरा सुशोभित था॥2
कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥3
वह कुछ ऊँचा था और सब प्रकार से सुंदर थाजहाँ जाकर नगर के लोग बैठेंगे। उन्हीं के पास विशाल एवं सुंदर सफेद मकान अनेक रंगों के बनाए गए हैं॥3
जहँ बैठें देखहिं सब नारी। जथाजोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥4
जहाँ अपने-अपने कुल के अनुसार सब स्त्रियाँ यथायोग्य (जिसको जहाँ बैठना उचित हैबैठकर देखेंगी। नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को (यज्ञशाला कीरचना दिखला रहे हैं॥4
दोहा :
सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥224
सब बालक इसी बहाने प्रेम के वश में होकर श्री रामजी के मनोहर अंगों को छूकर शरीर से पुलकित हो रहे हैं और दोनों भाइयों को देख-देखकर उनके हृदय में अत्यन्त हर्ष हो रहा है॥224
चौपाई :
सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥
निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥1
श्री रामचन्द्रजी ने सब बालकों को प्रेम के वश जानकर (यज्ञभूमि केस्थानों की प्रेमपूर्वक प्रशंसा की। (इससे बालकों का उत्साहआनंद और प्रेम और भी बढ़ गया,जिससेवे सब अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें बुला लेते हैं और (प्रत्येक के बुलाने परदोनों भाई प्रेम सहित उनके पास चले जाते हैं॥1
राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥
लव निमेष महुँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥2
कोमलमधुर और मनोहर वचन कहकर श्री रामजी अपने छोटे भाई लक्ष्मण को (यज्ञभूमि कीरचना दिखलाते हैं। जिनकी आज्ञा पाकर माया लव निमेष (पलक गिरने के चौथाई समयमें ब्रह्माण्डों के समूह रच डालती है,2
भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥3
वही दीनों पर दया करने वाले श्री रामजी भक्ति के कारण धनुष यज्ञ शाला को चकित होकर (आश्चर्य के साथदेख रहे हैं। इस प्रकार सब कौतुक (विचित्र रचना)देखकर वे गुरु के पास चले। देर हुई जानकर उनके मन में डर है॥3
जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआईं॥4
जिनके भय से डर को भी डर लगता हैवही प्रभु भजन का प्रभाव (जिसके कारण ऐसे महान प्रभु भी भय का नाट्य करते हैंदिखला रहे हैं। उन्होंने कोमलमधुर और सुंदर बातें कहकर बालकों को जबर्दस्ती विदा किया॥4
दोहा :
सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225
फिर भयप्रेमविनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे॥225
चौपाई :
निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥
कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥1
रात्रि का प्रवेश होते ही (संध्या के समयमुनि ने आज्ञा दीतब सबने संध्यावंदन किया। फिर प्राचीन कथाएँ तथा इतिहास कहते-कहते सुंदर रात्रि दो पहर बीतगई॥1
मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥2
तब श्रेष्ठ मुनि ने जाकर शयन किया। दोनों भाई उनके चरण दबाने लगेजिनके चरण कमलों के (दर्शन एवं स्पर्श केलिए वैराग्यवान्‌ पुरुष भी भाँति-भाँति के जप और योग करते हैं॥2
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥3
वे ही दोनों भाई मानो प्रेम से जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजी के चरण कमलों को दबा रहे हैं। मुनि ने बार-बार आज्ञा दीतब श्री रघुनाथजी ने जाकर शयन किया॥3
चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥4
श्री रामजी के चरणों को हृदय से लगाकर भय और प्रेम सहित परम सुख का अनुभव करते हुए लक्ष्मणजी उनको दबा रहे हैं। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बार-बार कहा-हे तात! (अबसो जाओ। तब वे उन चरण कमलों को हृदय में धरकर लेटे रहे॥4

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