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बंदीजनों द्वारा जनकप्रतिज्ञा की घोषणा, राजाओं से धनुष न उठना, जनक की निराशाजनक वाणी


तब बंदीजन जनक बोलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥
कह नृपु जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥4
तब राजा जनक ने वंदीजनों (भाटोंको बुलाया। वे विरुदावली (वंश की कीर्तिगाते हुए चले आए। राजा ने कहाजाकर मेरा प्रण सबसे कहो। भाट चलेउनके हृदय में कम आनंद न था॥4
दोहा :
बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥249
भाटों ने श्रेष्ठ वचन कहाहे पृथ्वी की पालना करने वाले सब राजागणसुनिए। हम अपनी भुजा उठाकर जनकजी का विशाल प्रण कहते हैं-249
चौपाई :
नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥1
राजाओं की भुजाओं का बल चन्द्रमा हैशिवजी का धनुष राहु हैवह भारी हैकठोर हैयह सबको विदित है। बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर गौं से (चुपके सेचलते बने (उसे उठाना तो दूर रहाछूने तक की हिम्मत न हुई)1
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
त्रिभुवन जय समेत बैदेही। बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥2
उसी शिवजी के कठोर धनुष को आज इस राज समाज में जो भी तोड़ेगातीनों लोकों की विजय के साथ ही उसको जानकीजी बिना किसी विचार के हठपूर्वक वरण करेंगी॥2
सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥
परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्ट देवन्ह सिर नाई॥3
प्रण सुनकर सब राजा ललचा उठे। जो वीरता के अभिमानी थेवे मन में बहुत ही तमतमाए। कमर कसकर अकुलाकर उठे और अपने इष्टदेवों को सिर नवाकर चले॥3
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥4
वे तमककर (बड़े ताव सेशिवजी के धनुष की ओर देखते हैं और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते हैंकरोड़ों भाँति से जोर लगाते हैंपर वह उठता ही नहीं। जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक हैवे तो धनुष के पास ही नहीं जाते॥4
दोहा :
तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ॥
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥250
वे मूर्ख राजा तमककर (किटकिटाकरधनुष को पकड़ते हैंपरन्तु जब नहीं उठता तो लजाकर चले जाते हैंमानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर वह धनुष अधिक-अधिक भारी होता जाता है॥250
चौपाई :
भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
डगइ न संभु सरासनु कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥1
तब दस हजार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगेतो भी वह उनके टाले नहीं टलता। शिवजी का वह धनुष कैसे नहीं डिगता थाजैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन (कभी) चलायमान नहीं होता॥1
सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥2
सब राजा उपहास के योग्य हो गएजैसे वैराग्य के बिना संन्यासी उपहास के योग्य हो जाता है। कीर्तिविजयबड़ी वीरताइन सबको वे धनुष के हाथों बरबस हारकर चले गए॥2
श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥3
राजा लोग हृदय से हारकर श्रीहीन (हतप्रभहो गए और अपने-अपने समाज में जा बैठे। राजाओं को (असफलदेखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे॥3
दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनिहम जो पनु ठाना॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥4
मैंने जो प्रण ठाना थाउसे सुनकर द्वीप-द्वीप के अनेकों राजा आए। देवता और दैत्य भी मनुष्य का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहुत से रणधीर वीर आए॥4
दोहा :
कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरतिअति कमनीय।
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥251
परन्तु धनुष को तोड़कर मनोहर कन्याबड़ी विजय और अत्यन्त सुंदर कीर्ति को पाने वाला मानो ब्रह्मा ने किसी को रचा ही नहीं॥251
चौपाई :
कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥1
कहिएयह लाभ किसको अच्छा नहीं लगतापरन्तु किसी ने भी शंकरजी का धनुष नहीं चढ़ाया। अरे भाईचढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहाकोई तिल भर भूमि भी छुड़ा न सका॥1
अब जनि कोउ भाखे भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥2
अब कोई वीरता का अभिमानी नाराज न हो। मैंने जान लियापृथ्वी वीरों से खाली हो गई। अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं॥2
सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआँरि रहउ का करऊँ॥
जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥3
यदि प्रण छोड़ता हूँतो पुण्य जाता हैइसलिए क्या करूँकन्या कुँआरी ही रहे। यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य हैतो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता॥3

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