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रावणादिका जन्म, तपस्या और उनका ऐश्वर्य तथा अत्याचार


दोहा :
भरद्वाज सुनु जाहि जब होई बिधाता बाम।
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥175
(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-) हे भरद्वाजसुनोविधाता जब जिसके विपरीत होते हैंतब उसके लिए धूल सुमेरु पर्वत के समान (भारी और कुचल डालने वाली)पिता यम के समान (कालरूपऔर रस्सी साँप के समान (काट खाने वालीहो जाती है॥175
चौपाई:
काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥1
हे मुनिसुनोसमय पाकर वही राजा परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ। उसके दस सिर और बीस भुजाएँ थीं और वह बड़ा ही प्रचण्ड शूरवीर था॥1
भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥2
अरिमर्दन नामक जो राजा का छोटा भाई थावह बल का धाम कुम्भकर्ण हुआ। उसका जो मंत्री थाजिसका नाम धर्मरुचि थावह रावण का सौतेला छोटा भाई हुआ ॥2
नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥3
उसका विभीषण नाम थाजिसे सारा जगत जानता है। वह विष्णुभक्त और ज्ञान-विज्ञान का भंडार था और जो राजा के पुत्र और सेवक थेवे सभी बड़े भयानक राक्षस हुए॥3
कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥
कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥4
वे सब अनेकों जाति केमनमाना रूप धारण करने वालेदुष्टकुटिलभयंकरविवेकरहितनिर्दयीहिंसकपापी और संसार भर को दुःख देने वाले हुएउनका वर्णन नहीं हो सकता॥4



दोहा :
उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥176
यद्यपि वे पुलस्त्य ऋषि के पवित्रनिर्मल और अनुपम कुल में उत्पन्न हुएतथापि ब्राह्मणों के शाप के कारण वे सब पाप रूप हुए॥176
चौपाई :
कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥1
तीनों भाइयों ने अनेकों प्रकार की बड़ी ही कठिन तपस्या कीजिसका वर्णन नहीं हो सकता। (उनका उग्रतप देखकर ब्रह्माजी उनके पास गए और बोलेहे तातमैं प्रसन्न हूँवर माँगो॥1
करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥2
रावण ने विनय करके और चरण पकड़कर कहाहे जगदीश्वरसुनिएवानर और मनुष्यइन दो जातियों को छोड़कर हम और किसी के मारे न मरें। (यह वर दीजिए)2
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥3
(शिवजी कहते हैं कि-) मैंने और ब्रह्मा ने मिलकर उसे वर दिया कि ऐसा ही होतुमने बड़ा तप किया है। फिर ब्रह्माजी कुंभकर्ण के पास गए। उसे देखकर उनके मन में बड़ा आश्चर्य हुआ॥3
जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥4
जो यह दुष्ट नित्य आहार करेगातो सारा संसार ही उजाड़ हो जाएगा। (ऐसा विचारकर) ब्रह्माजी ने सरस्वती को प्रेरणा करके उसकी बुद्धि फेर दी। (जिससेउसने छह महीने की नींद माँगी॥4
दोहा :
गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥177
फिर ब्रह्माजी विभीषण के पास गए और बोलेहे पुत्रवर माँगो। उसने भगवान के चरणकमलों में निर्मल (निष्काम और अनन्यप्रेम माँगा॥177
चौपाई :
तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥1
उनको वर देकर ब्रह्माजी चले गए और वे (तीनों भाईहर्षित हेकर अपने घर लौट आए। मय दानव की मंदोदरी नाम की कन्या परम सुंदरी और स्त्रियों में शिरोमणि थी॥1
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥2
मय ने उसे लाकर रावण को दिया। उसने जान लिया कि यह राक्षसों का राजा होगा। अच्छी स्त्री पाकर रावण प्रसन्न हुआ और फिर उसने जाकर दोनों भाइयों का विवाह कर दिया॥2
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनि भवन अपारा॥3
समुद्र के बीच में त्रिकूट नामक पर्वत पर ब्रह्मा का बनाया हुआ एक बड़ा भारी किला था। (महान मायावी और निपुण कारीगरमय दानव ने उसको फिर से सजा दिया। उसमें मणियों से जड़े हुए सोने के अनगिनत महल थे॥3
भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥4
जैसी नागकुल के रहने की (पाताल लोक मेंभोगावती पुरी है और इन्द्र के रहने की (स्वर्गलोक मेंअमरावती पुरी हैउनसे भी अधिक सुंदर और बाँका वह दुर्ग था। जगत में उसका नाम लंका प्रसिद्ध हुआ॥4
दोहा :
खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥178 क॥
उसे चारों ओर से समुद्र की अत्यन्त गहरी खाई घेरे हुए है। उस (दुर्गके मणियों से जड़ा हुआ सोने का मजबूत परकोटा हैजिसकी कारीगरी का वर्णन नहीं किया जा सकता॥178 ()
हरि प्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥178 ख॥
भगवान की प्रेरणा से जिस कल्प में जो राक्षसों का राजा (रावणहोता हैवही शूरप्रतापीअतुलित बलवान्‌ अपनी सेना सहित उस पुरी में बसता है॥178 ()
चौपाई :
रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥1
(पहलेवहाँ बड़े-बड़े योद्धा राक्षस रहते थे। देवताओं ने उन सबको युद्द में मार डाला। अब इंद्र की प्रेरणा से वहाँ कुबेर के एक करोड़ रक्षक (यक्ष लोगरहते हैं॥1
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥2
रावण को कहीं ऐसी खबर मिलीतब उसने सेना सजाकर किले को जा घेरा। उस बड़े विकट योद्धा और उसकी बड़ी सेना को देखकर यक्ष अपने प्राण लेकर भाग गए॥2
फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥3
तब रावण ने घूम-फिरकर सारा नगर देखा। उसकी (स्थान संबंधीचिन्ता मिट गई और उसे बहुत ही सुख हुआ। उस पुरी को स्वाभाविक ही सुंदर और (बाहर वालों के लिएदुर्गम अनुमान करके रावण ने वहाँ अपनी राजधानी कायम की॥3
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हें॥
एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥4
योग्यता के अनुसार घरों को बाँटकर रावण ने सब राक्षसों को सुखी किया। एक बार वह कुबेर पर चढ़ दौड़ा और उससे पुष्पक विमान को जीतकर ले आया॥4
दोहा :
कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥179
फिर उसने जाकर (एक बारखिलवाड़ ही में कैलास पर्वत को उठा लिया और मानो अपनी भुजाओं का बल तौलकरबहुत सुख पाकर वह वहाँ से चला आया॥179
चौपाई :
सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥
नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥1
सुखसम्पत्तिपुत्रसेनासहायकजयप्रतापबलबुद्धि और बड़ाईये सब उसके नित्य नए (वैसे हीबढ़ते जाते थेजैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है॥1
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहूँ पुर त्रासा॥2
अत्यन्त बलवान्‌ कुम्भकर्ण सा उसका भाई थाजिसके जोड़ का योद्धा जगत में पैदा ही नहीं हुआ। वह मदिरा पीकर छह महीने सोया करता था। उसके जागते ही तीनों लोकों में तहलका मच जाता था॥2
जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥3
यदि वह प्रतिदिन भोजन करतातब तो सम्पूर्ण विश्व शीघ्र ही चौपट (खालीहो जाता। रणधीर ऐसा था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (लंका मेंउसके ऐसे असंख्य बलवान वीर थे॥3
बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥4
मेघनाद रावण का बड़ा लड़का थाजिसका जगत के योद्धाओं में पहला नंबर था। रण में कोई भी उसका सामना नहीं कर सकता था। स्वर्ग में तो (उसके भय सेनित्य भगदड़ मची रहती थी॥4
दोहा :
कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥180
(इनके अतिरिक्तदुर्मुखअकम्पनवज्रदन्तधूमकेतु और अतिकाय आदि ऐसे अनेक योद्धा थेजो अकेले ही सारे जगत को जीत सकते थे॥180
चौपाई :
कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥1
सभी राक्षस मनमाना रूप बना सकते थे और (आसुरीमाया जानते थे। उनके दया-धर्म स्वप्न में भी नहीं था। एक बार सभा में बैठे हुए रावण ने अपने अगणित परिवार को देखा-1
सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥2
पुत्र-पौत्रकुटुम्बी और सेवक ढेर-के-ढेर थे। (सारीराक्षसों की जातियों को तो गिन ही कौन सकता थाअपनी सेना को देखकर स्वभाव से ही अभिमानी रावण क्रोध और गर्व में सनी हुई वाणी बोला-2
सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥3
हे समस्त राक्षसों के दलोंसुनोदेवतागण हमारे शत्रु हैं। वे सामने आकर युद्ध नहीं करते। बलवान शत्रु को देखकर भाग जाते हैं॥3
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
द्विजभोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥4
उनका मरण एक ही उपाय से हो सकता हैमैं समझाकर कहता हूँ। अब उसे सुनो। (उनके बल को बढ़ाने वालेब्राह्मण भोजनयज्ञहवन और श्राद्धइन सबमें जाकर तुम बाधा डालो॥4


दोहा :
छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥181
भूख से दुर्बल और बलहीन होकर देवता सहज ही में आ मिलेंगे। तब उनको मैं मार डालूँगा अथवा भलीभाँति अपने अधीन करके (सर्वथा पराधीन करकेछोड़ दूँगा॥181
चौपाई :
मेघनाद कहूँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सिख बलु बयरु बढ़ावा॥
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥1
फिर उसने मेघनाद को बुलवाया और सिखा-पढ़ाकर उसके बल और देवताओं के प्रति बैरभाव को उत्तेजना दी। (फिर कहा-) हे पुत्र जो देवता रण में धीर और बलवान्‌ हैं और जिन्हें लड़ने का अभिमान है॥1
तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँघी॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्हीं। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥2
उन्हें युद्ध में जीतकर बाँध लाना। बेटे ने उठकर पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया। इसी तरह उसने सबको आज्ञा दी और आप भी हाथ में गदा लेकर चल दिया॥2
चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥3
रावण के चलने से पृथ्वी डगमगाने लगी और उसकी गर्जना से देवरमणियों के गर्भ गिरने लगे। रावण को क्रोध सहित आते हुए सुनकर देवताओं ने सुमेरु पर्वत की गुफाएँ तकीं (भागकर सुमेरु की गुफाओं का आश्रय लिया)3
दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥4
दिक्पालों के सारे सुंदर लोकों को रावण ने सूना पाया। वह बार-बार भारी सिंहगर्जना करके देवताओं को ललकार-ललकारकर गालियाँ देता था॥4
रन मद मत्त फिरइ गज धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥5
रण के मद में मतवाला होकर वह अपनी जोड़ी का योद्धा खोजता हुआ जगत भर में दौड़ता फिरापरन्तु उसे ऐसा योद्धा कहीं नहीं मिला। सूर्यचन्द्रमावायुवरुणकुबेरअग्निकाल और यम आदि सब अधिकारी,5
किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥6
किन्नरसिद्धमनुष्यदेवता और नागसभी के पीछे वह हठपूर्वक पड़ गया (किसी को भी उसने शांतिपूर्वक नहीं बैठने दिया)। ब्रह्माजी की सृष्टि में जहाँ तक शरीरधारी स्त्री-पुरुष थेसभी रावण के अधीन हो गए॥6
आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥7
डर के मारे सभी उसकी आज्ञा का पालन करते थे और नित्य आकर नम्रतापूर्वक उसके चरणों में सिर नवाते थे॥7
दोहा :
भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥182 क॥
उसने भुजाओं के बल से सारे विश्व को वश में कर लियाकिसी को स्वतंत्र नहीं रहने दिया। (इस प्रकारमंडलीक राजाओं का शिरोमणि (सार्वभौम सम्राटरावण अपनी इच्छानुसार राज्य करने लगा॥182 ()
देव जच्छ गंधर्ब नर किंनर नाग कुमारि।
जीति बरीं निज बाहु बल बहु सुंदर बर नारि॥182 ख॥
देवतायक्षगंधर्वमनुष्यकिन्नर और नागों की कन्याओं तथा बहुत सी अन्य सुंदरी और उत्तम स्त्रियों को उसने अपनी भुजाओं के बल से जीतकर ब्याह लिया॥182 ()
चौपाई :
इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥1
मेघनाद से उसने जो कुछ कहाउसे उसने (मेघनाद नेमानो पहले से ही कर रखा था (अर्थात्‌ रावण के कहने भर की देर थीउसने आज्ञापालन में तनिक भी देर नहीं की।) जिनको (रावण ने मेघनाद सेपहले ही आज्ञा दे रखी थीउन्होंने जो करतूतें की उन्हें सुनो॥1
देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
करहिं उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥2
सब राक्षसों के समूह देखने में बड़े भयानकपापी और देवताओं को दुःख देने वाले थे। वे असुरों के समूह उपद्रव करते थे और माया से अनेकों प्रकार के रूप धरते थे॥2
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥3
जिस प्रकार धर्म की जड़ कटेवे वही सब वेदविरुद्ध काम करते थे। जिस-जिस स्थान में वे गो और ब्राह्मणों को पाते थेउसी नगरगाँव और पुरवे में आग लगा देते थे॥3
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरु मान न कोई॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहु सुनिअ न बेद पुराना॥4
(उनके डर से) कहीं भी शुभ आचरण (ब्राह्मण भोजनयज्ञश्राद्ध आदिनहीं होते थे। देवताब्राह्मण और गुरु को कोई नहीं मानता था। न हरिभक्ति थीन यज्ञतप और ज्ञान था। वेद और पुराण तो स्वप्न में भी सुनने को नहीं मिलते थे॥4
छन्द :
जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥ 
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥
जपयोगवैराग्यतप तथा यज्ञ में (देवताओं केभाग पाने की बात रावण कहीं कानों से सुन पातातो (उसी समयस्वयं उठ दौड़ता। कुछ भी रहने नहीं पातावह सबको पकड़कर विध्वंस कर डालता था। संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल गया कि धर्म तो कानों में सुनने में नहीं आता थाजो कोई वेद और पुराण कहताउसको बहुत तरह से त्रास देता और देश से निकाल देता था।
सोरठा :
बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥183
राक्षस लोग जो घोर अत्याचार करते थेउसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हिंसा पर ही जिनकी प्रीति हैउनके पापों का क्या ठिकाना॥183

मासपारायणछठा विश्राम

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