Read श्रीरामचरितमानस in your own script

Roman(Eng) ગુજરાતી বাংগ্লা ਗੁਰਮੁਖੀ తెలుగు தமிழ் ಕನ್ನಡ മലയാളം हिन्दी

श्री भगवान्‌ का प्राकट्य और बाललीला का आनंद


दोहा :
जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥190
योगलग्नग्रहवार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। जड़ और चेतन सब हर्ष से भर गए। (क्योंकिश्री राम का जन्म सुख का मूल है॥190



चौपाई :
नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥1
पवित्र चैत्र का महीना थानवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित्‌ मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बहुत सर्दी थीन धूप (गरमीथी। वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देने वाला था॥1
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥2
शीतलमंद और सुगंधित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतों के मन में (बड़ाचाव था। वन फूले हुए थेपर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ अमृत की धारा बहा रही थीं॥2
सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
गगन बिमल संकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥3
जब ब्रह्माजी ने वह (भगवान के प्रकट होने काअवसर जाना तब (उनके समेतसारे देवता विमान सजा-सजाकर चले। निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया। गंधर्वों के दल गुणों का गान करने लगे॥3
बरषहिं सुमन सुअंजुलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥4
और सुंदर अंजलियों में सजा-सजाकर पुष्प बरसाने लगे। आकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगे। नागमुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी-अपनी सेवा (उपहारभेंट करने लगे॥4
दोहा :
सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥191
देवताओं के समूह विनती करके अपने-अपने लोक में जा पहुँचे। समस्त लोकों को शांति देने वालेजगदाधार प्रभु प्रकट हुए॥191
छन्द :
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥ 
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥1
दीनों पर दया करने वालेकौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर थाचारों भुजाओं में अपने (खास) आयुध (धारण किए हुएथे, (दिव्यआभूषण और वनमाला पहने थे,बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए॥1
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥ 
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥2
दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगीहे अनंतमैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुम को मायागुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्रसब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैंवही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं॥2
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥ 
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥3
वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह (भरेहैं। वे तुम मेरे गर्भ में रहेइस हँसी की बात के सुनने पर धीर (विवेकीपुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती (विचलित हो जाती है)। जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआतब प्रभु मुस्कुराए। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः उन्होंने(पूर्व जन्म कीसुंदर कथा कहकर माता को समझायाजिससे उन्हें पुत्र का (वात्सल्यप्रेम प्राप्त हो (भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाए)3
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥ 
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥4
माता की वह बुद्धि बदल गईतब वह फिर बोलीहे तातयह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो, (मेरे लिएयह सुख परम अनुपम होगा। (माता कायह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक (रूपहोकर रोना शुरू कर दिया। (तुलसीदासजी कहते हैं-) जो इस चरित्र का गान करते हैंवे श्री हरि का पद पाते हैं और (फिरसंसार रूपी कूप में नहीं गिरते॥4
दोहा :
बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192
ब्राह्मणगोदेवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयीमलिनामाया और उसके गुण (सत्‌रजतमऔर (बाहरी तथा भीतरीइन्द्रियों से परे हैं। उनका (दिव्यशरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्म बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं)192
चौपाई :
सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥1
बच्चे के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आईं। दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ दौड़ीं। सारे पुरवासी आनंद में मग्न हो गए॥1
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहु ब्रह्मानंद समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठन करत मति धीरा॥2
राजा दशरथजी पुत्र का जन्म कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानंद में समा गए। मन में अतिशय प्रेम हैशरीर पुलकित हो गया। (आनंद में अधीर हुईबुद्धि को धीरज देकर (और प्रेम में शिथिल हुए शरीर को संभालकरवे उठना चाहते हैं॥2
जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥3
जिनका नाम सुनने से ही कल्याण होता हैवही प्रभु मेरे घर आए हैं। (यह सोचकरराजा का मन परम आनंद से पूर्ण हो गया। उन्होंने बाजे वालों को बुलाकर कहा कि बाजा बजाओ॥3
गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥4
गुरु वशिष्ठजी के पास बुलावा गया। वे ब्राह्मणों को साथ लिए राजद्वार पर आए। उन्होंने जाकर अनुपम बालक को देखाजो रूप की राशि है और जिसके गुण कहने से समाप्त नहीं होते॥4
दोहा :
नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥193
फिर राजा ने नांदीमुख श्राद्ध करके सब जातकर्म-संस्कार आदि किए और ब्राह्मणों को सोनागोवस्त्र और मणियों का दान दिया॥193
चौपाई :
ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥1
ध्वजापताका और तोरणों से नगर छा गया। जिस प्रकार से वह सजाया गयाउसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। आकाश से फूलों की वर्षा हो रही हैसब लोग ब्रह्मानंद में मग्न हैं॥1
बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाईं। सहज सिंगार किएँ उठि धाईं॥
कनक कलस मंगल भरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥2
स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर चलीं। स्वाभाविक श्रृंगार किए ही वे उठ दौड़ीं। सोने का कलश लेकर और थालों में मंगल द्रव्य भरकर गाती हुईं राजद्वार में प्रवेश करतीहैं॥2
करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥3
वे आरती करके निछावर करती हैं और बार-बार बच्चे के चरणों पर गिरती हैं। मागधसूतवन्दीजन और गवैये रघुकुल के स्वामी के पवित्र गुणों का गान करते हैं॥3
सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥4
राजा ने सब किसी को भरपूर दान दिया। जिसने पाया उसने भी नहीं रखा (लुटा दिया)। (नगर कीसभी गलियों के बीच-बीच में कस्तूरीचंदन और केसर की कीच मच गई॥4
दोहा :
गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥194
घर-घर मंगलमय बधावा बजने लगाक्योंकि शोभा के मूल भगवान प्रकट हुए हैं। नगर के स्त्री-पुरुषों के झुंड के झुंड जहाँ-तहाँ आनंदमग्न हो रहे हैं॥194
चौपाई :
कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥1
कैकेयी और सुमित्राइन दोनों ने भी सुंदर पुत्रों को जन्म दिया। उस सुखसम्पत्तिसमय और समाज का वर्णन सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कर सकते॥1
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥2
अवधपुरी इस प्रकार सुशोभित हो रही हैमानो रात्रि प्रभु से मिलने आई हो और सूर्य को देखकर मानो मन में सकुचा गई होपरन्तु फिर भी मन में विचार कर वह मानो संध्या बन (कर रहगई हो॥2
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अबीर मनहुँ अरुनारी॥
मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥3
अगर की धूप का बहुत सा धुआँ मानो (संध्या काअंधकार है और जो अबीर उड़ रहा हैवह उसकी ललाई है। महलों में जो मणियों के समूह हैंवे मानो तारागण हैं। राज महल का जो कलश हैवही मानो श्रेष्ठ चन्द्रमा है॥3
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥4
राजभवन में जो अति कोमल वाणी से वेदध्वनि हो रही हैवही मानो समय से (समयानुकूलसनी हुई पक्षियों की चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सूर्य भी(अपनी चालभूल गए। एक महीना उन्होंने जाता हुआ न जाना (अर्थात उन्हें एक महीना वहीं बीत गया)4
दोहा :
मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195
महीने भर का दिन हो गया। इस रहस्य को कोई नहीं जानता। सूर्य अपने रथ सहित वहीं रुक गएफिर रात किस तरह होती॥195
चौपाई :
यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिनमनि चले करत गुनगाना॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥1
यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। सूर्यदेव (भगवान श्री रामजी कागुणगान करते हुए चले। यह महोत्सव देखकर देवतामुनि और नाग अपने भाग्य की सराहना करते हुए अपने-अपने घर चले॥1
औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
काकभुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥2
हे पार्वती! तुम्हारी बुद्धि (श्री रामजी के चरणों मेंबहुत दृढ़ हैइसलिए मैं और भी अपनी एक चोरी (छिपावकी बात कहता हूँसुनो। काकभुशुण्डि और मैं दोनों वहाँ साथ-साथ थेपरन्तु मनुष्य रूप में होने के कारण हमें कोई जान न सका॥2
परमानंद प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥3
परम आनंद और प्रेम के सुख में फूले हुए हम दोनों मगन मन से (मस्त हुएगलियों में (तन-मन की सुधिभूले हुए फिरते थेपरन्तु यह शुभ चरित्र वही जान सकता हैजिस पर श्री रामजी की कृपा हो॥3
तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥4
उस अवसर पर जो जिस प्रकार आया और जिसके मन को जो अच्छा लगाराजा ने उसे वही दिया। हाथीरथघोड़ेसोनागायेंहीरे और भाँति-भाँति के वस्त्र राजा ने दिए॥4
दोहा :
मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहिं असीस।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196
राजा ने सबके मन को संतुष्ट किया। (इसी सेसब लोग जहाँ-तहाँ आशीर्वाद दे रहे थे कि तुलसीदास के स्वामी सब पुत्र (चारों राजकुमारचिरजीवी (दीर्घायु)हों॥196
चौपाई :
कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥1
इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। दिन और रात जाते हुए जान नहीं पड़ते। तब नामकरण संस्कार का समय जानकर राजा ने ज्ञानी मुनि श्री वशिष्ठजी को बुला भेजा॥1
करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥2
मुनि की पूजा करके राजा ने कहाहे मुनिआपने मन में जो विचार रखे होंवे नाम रखिए। (मुनि ने कहा-) हे राजन्‌इनके अनुपम नाम हैंफिर भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहूँगा॥2
जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3
ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैंजिस (आनंदसिंधुके एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैंउन (आपके सबसे बड़े पुत्रका नाम 'रामहैजो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है॥3
बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥4
जो संसार का भरण-पोषण करते हैंउन (आपके दूसरे पुत्रका नाम 'भरतहोगाजिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता हैउनका वेदों में प्रसिद्ध 'शत्रुघ्ननामहै॥4
दोहा :
लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्‍ठ तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197
जो शुभ लक्षणों के धामश्री रामजी के प्यारे और सारे जगत के आधार हैंगुरु वशिष्‍ठजी ने उनका 'लक्ष्मणऐसा श्रेष्‍ठ नाम रखा है॥197
चौपाई :
धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1
गुरुजी ने हृदय में विचार कर ये नाम रखे (और कहा-) हे राजन्‌तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व (साक्षात्‌ परात्पर भगवानहैं। जो मुनियों के धनभक्तों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैंउन्होंने (इस समय तुम लोगों के प्रेमवश) बाल लीला के रस में सुख माना है॥1
बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥2
बचपन से ही श्री रामचन्द्रजी को अपना परम हितैषी स्वामी जानकर लक्ष्मणजी ने उनके चरणों में प्रीति जोड़ ली। भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों में स्वामी और सेवक की जिस प्रीति की प्रशंसा हैवैसी प्रीति हो गई॥2
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥3
श्याम और गौर शरीर वाली दोनों सुंदर जोड़ियों की शोभा को देखकर माताएँ तृण तोड़ती हैं (जिसमें दीठ न लग जाए)। यों तो चारों ही पुत्र शीलरूप और गुण के धाम हैंतो भी सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी सबसे अधिक हैं॥3
हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥4
उनके हृदय में कृपा रूपी चन्द्रमा प्रकाशित है। उनकी मन को हरने वाली हँसी उस (कृपा रूपी चन्द्रमाकी किरणों को सूचित करती है। कभी गोद में (लेकरऔर कभी उत्तम पालने में (लिटाकरमाता 'प्यारे ललना!कहकर दुलार करती है॥4
दोहा :
ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥198
जो सर्वव्यापकनिरंजन (मायारहित)निर्गुणविनोदरहित और अजन्मे ब्रह्म हैंवही प्रेम और भक्ति के वश कौसल्याजी की गोद में (खेल रहेहैं॥198
चौपाई :
काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥
नअरुन चरन पंकज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥1
उनके नीलकमल और गंभीर (जल से भरे हुएमेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की शोभा है। लाल-लाल चरण कमलों के नखों की (शुभ्रज्योति ऐसी मालूम होती है जैसे (लालकमल के पत्तों पर मोती स्थिर हो गए हों॥1
रेख कुलिस ध्वज अंकुस सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥2
(चरणतलों में) वज्रध्वजा और अंकुश के चिह्न शोभित हैं। नूपुर (पेंजनीकी ध्वनि सुनकर मुनियों का भी मन मोहित हो जाता है। कमर में करधनी और पेट पर तीन रेखाएँ (त्रिवलीहैं। नाभि की गंभीरता को तो वही जानते हैंजिन्होंने उसे देखा है॥2
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥3
बहुत से आभूषणों से सुशोभित विशाल भुजाएँ हैं। हृदय पर बाघ के नख की बहुत ही निराली छटा है। छाती पर रत्नों से युक्त मणियों के हार की शोभा और ब्राह्मण(भृगुके चरण चिह्न को देखते ही मन लुभा जाता है॥3
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥4
कंठ शंख के समान (उतार-चढ़ाव वालातीन रेखाओं से सुशोभितहै और ठोड़ी बहुत ही सुंदर है। मुख पर असंख्य कामदेवों की छटा छा रही है। दो-दो सुंदर दँतुलियाँ हैंलाल-लाल होठ हैं। नासिका और तिलक (के सौंदर्यका तो वर्णन ही कौन कर सकता है॥4
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥5
सुंदर कान और बहुत ही सुंदर गाल हैं। मधुर तोतले शब्द बहुत ही प्यारे लगते हैं। जन्म के समय से रखे हुए चिकने और घुँघराले बाल हैंजिनको माता ने बहुत प्रकार से बनाकर सँवार दिया है॥5
पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥6
शरीर पर पीली झँगुली पहनाई हुई है। उनका घुटनों और हाथों के बल चलना मुझे बहुत ही प्यारा लगता है। उनके रूप का वर्णन वेद और शेषजी भी नहीं कर सकते। उसे वही जानता हैजिसने कभी स्वप्न में भी देखा हो॥6
दोहा :
सुख संदोह मोह पर ग्यान गिरा गोतीत।
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199
जो सुख के पुंजमोह से परे तथा ज्ञानवाणी और इन्द्रियों से अतीत हैंवे भगवान दशरथ-कौसल्या के अत्यन्त प्रेम के वश होकर पवित्र बाललीला करते हैं॥199
चौपाई :
एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1
इस प्रकार (सम्पूर्णजगत के माता-पिता श्री रामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते हैंजिन्होंने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति जोड़ी हैहे भवानी! उनकी यह प्रत्यक्ष गति है (कि भगवान उनके प्रेमवश बाललीला करके उन्हें आनंद दे रहे हैं)1
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥2
श्री रघुनाथजी से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करेपरन्तु उसका संसार बंधन कौन छुड़ा सकता है। जिसने सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा हैवह माया भी प्रभु से भय खाती है॥2
भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥3
भगवान उस माया को भौंह के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोड़कर कहो, (औरकिसका भजन किया जाए। मनवचन और कर्म से चतुराई छोड़कर भजते ही श्री रघुनाथजी कृपा करेंगे॥3
एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालने घालि झुलावै॥4
इस प्रकार से प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बालक्रीड़ा की और समस्त नगर निवासियों को सुख दिया। कौसल्याजी कभी उन्हें गोद में लेकर हिलाती-डुलाती और कभी पालने में लिटाकर झुलाती थीं॥4
दोहा :
प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥200
प्रेम में मग्न कौसल्याजी रात और दिन का बीतना नहीं जानती थीं। पुत्र के स्नेहवश माता उनके बालचरित्रों का गान किया करतीं॥200
चौपाई :
एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥
निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥1
एक बार माता ने श्री रामचन्द्रजी को स्नान कराया और श्रृंगार करके पालने पर पौढ़ा दिया। फिर अपने कुल के इष्टदेव भगवान की पूजा के लिए स्नान किया॥1
करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥
बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥2
पूजा करके नैवेद्य चढ़ाया और स्वयं वहाँ गईंजहाँ रसोई बनाई गई थी। फिर माता वहीं (पूजा के स्थान मेंलौट आई और वहाँ आने पर पुत्र को (इष्टदेव भगवान के लिए चढ़ाए हुए नैवेद्य काभोजन करते देखा॥2
गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥
बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥3
माता भयभीत होकर (पालने में सोया थायहाँ किसने लाकर बैठा दियाइस बात से डरकर) पुत्र के पास गईतो वहाँ बालक को सोया हुआ देखा। फिर (पूजा स्थान में लौटकरदेखा कि वही पुत्र वहाँ (भोजन कर रहाहै। उनके हृदय में कम्प होने लगा और मन को धीरज नहीं होता॥3
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥
देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥4
(वह सोचने लगी कियहाँ और वहाँ मैंने दो बालक देखे। यह मेरी बुद्धि का भ्रम है या और कोई विशेष कारण हैप्रभु श्री रामचन्द्रजी माता को घबड़ाई हुई देखकर मधुर मुस्कान से हँस दिए॥4
दोहा :
देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखंड।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥201
फिर उन्होंने माता को अपना अखंड अद्भुत रूप दिखलायाजिसके एक-एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं॥201
चौपाई :
अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥1
अगणित सूर्यचन्द्रमाशिवब्रह्माबहुत से पर्वतनदियाँसमुद्रपृथ्वीवनकालकर्मगुणज्ञान और स्वभाव देखे और वे पदार्थ भी देखे जो कभी सुने भी नथे॥1
देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥2
सब प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह (भगवान के सामनेअत्यन्त भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है। जीव को देखाजिसे वह माया नचाती है और (फिरभक्ति को देखाजो उस जीव को (माया सेछुड़ा देती है॥2
तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥3
(माता काशरीर पुलकित हो गयामुख से वचन नहीं निकलता। तब आँखें मूँदकर उसने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाया। माता को आश्चर्यचकित देखकर खर के शत्रु श्री रामजी फिर बाल रूप हो गए॥3
अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥4
(माता से) स्तुति भी नहीं की जाती। वह डर गई कि मैंने जगत्पिता परमात्मा को पुत्र करके जाना। श्री हरि ने माता को बहुत प्रकार से समझाया (और कहा-) हे माता! सुनोयह बात कहीं पर कहना नहीं॥4
दोहा :
बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥202
कौसल्याजी बार-बार हाथ जोड़कर विनय करती हैं कि हे प्रभोमुझे आपकी माया अब कभी न व्यापे॥202
चौपाई :
बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥
कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥1
भगवान ने बहुत प्रकार से बाललीलाएँ कीं और अपने सेवकों को अत्यन्त आनंद दिया। कुछ समय बीतने पर चारों भाई बड़े होकर कुटुम्बियों को सुख देने वाले हुए॥1
चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥2
तब गुरुजी ने जाकर चूड़ाकर्म-संस्कार किया। ब्राह्मणों ने फिर बहुत सी दक्षिणा पाई। चारों सुंदर राजकुमार बड़े ही मनोहर अपार चरित्र करते फिरते हैं॥2
मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥3
जो मनवचन और कर्म से अगोचर हैंवही प्रभु दशरथजी के आँगन में विचर रहे हैं। भोजन करने के समय जब राजा बुलाते हैंतब वे अपने बाल सखाओं के समाज को छोड़कर नहीं आते॥3
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुकु ठुमुकु प्रभु चलहिं पराई॥
निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥4
कौसल्या जब बुलाने जाती हैंतब प्रभु ठुमुक-ठुमुक भाग चलते हैं। जिनका वेद 'नेति' (इतना ही नहींकहकर निरूपण करते हैं और शिवजी ने जिनका अन्त नहीं पायामाता उन्हें हठपूर्वक पकड़ने के लिए दौड़ती हैं॥4
धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥5॥।
वे शरीर में धूल लपेटे हुए आए और राजा ने हँसकर उन्हें गोद में बैठा लिया॥5
दोहा :
भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203
भोजन करते हैंपर चित चंचल है। अवसर पाकर मुँह में दही-भात लपटाए किलकारी मारते हुए इधर-उधर भाग चले॥203
चौपाई :
बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥1
श्री रामचन्द्रजी की बहुत ही सरल (भोलीऔर सुंदर (मनभावनीबाललीलाओं का सरस्वतीशेषजीशिवजी और वेदों ने गान किया है। जिनका मन इन लीलाओं में अनुरक्त नहीं हुआविधाता ने उन मनुष्यों को वंचित कर दिया (नितांत भाग्यहीन बनाया)1
भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2
ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुएत्यों ही गुरुपिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों सहितगुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं॥2
जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिंखेल सकल नृपलीला॥3
चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैंवे भगवान पढ़ेंयह बड़ा कौतुक (अचरजहै। चारों भाई विद्याविनयगुण और शील में (बड़ेनिपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते हैं॥3
करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥4
हाथों में बाण और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं। रूप देखते ही चराचर (जड़-चेतनमोहित हो जाते हैं। वे सब भाई जिन गलियों में खेलते (हुए निकलतेहैंउन गलियों के सभी स्त्री-पुरुष उनको देखकर स्नेह से शिथिल हो जाते हैं अथवा ठिठककर रह जाते हैं॥4
दोहा :
कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥204
कोसलपुर के रहने वाले स्त्रीपुरुषबूढ़े और बालक सभी को कृपालु श्री रामचन्द्रजी प्राणों से भी बढ़कर प्रिय लगते हैं॥204
चौपाई :
बंधु सखा सँग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥
पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥1
श्री रामचन्द्रजी भाइयों और इष्ट मित्रों को बुलाकर साथ ले लेते हैं और नित्य वन में जाकर शिकार खेलते हैं। मन में पवित्र समझकर मृगों को मारते हैं औरप्रतिदिन लाकर राजा (दशरथजीको दिखलाते हैं॥1
जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥
अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥2
जो मृग श्री रामजी के बाण से मारे जाते थेवे शरीर छोड़कर देवलोक को चले जाते थे। श्री रामचन्द्रजी अपने छोटे भाइयों और सखाओं के साथ भोजन करते हैं और माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हैं॥2
जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥3
जिस प्रकार नगर के लोग सुखी होंकृपानिधान श्री रामचन्द्रजी वही संयोग (लीलाकरते हैं। वे मन लगाकर वेद-पुराण सुनते हैं और फिर स्वयं छोटे भाइयों को समझाकर कहते हैं॥3
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥4
श्री रघुनाथजी प्रातःकाल उठकर माता-पिता और गुरु को मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर नगर का काम करते हैं। उनके चरित्र देख-देखकर राजा मन में बड़े हर्षित होते हैं॥4

Followers/ Subscribers