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मनु-शतरूपा तप एवं वरदान


दोहा :
सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाइ।
रामकथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥141
हे मुनीश्वर भरद्वाजमैं वह सब तुमसे कहता हूँमन लगाकर सुनो। श्री रामचन्द्रजी की कथा कलियुग के पापों को हरने वालीकल्याण करने वाली और बड़ी सुंदर है॥141
चौपाई :
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥1
स्वायम्भुव मनु और (उनकी पत्नीशतरूपाजिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुईइन दोनों पति-पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे। आज भी वेद जिनकी मर्यादा का गान करते हैं॥1
नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू॥
लघु सुत नाम प्रियब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥2
राजा उत्तानपाद उनके पुत्र थेजिनके पुत्र (प्रसिद्धहरिभक्त ध्रुवजी हुए। उन (मनुजी) के छोटे लड़के का नाम प्रियव्रत थाजिनकी प्रशंसा वेद और पुराण करते हैं॥2
देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
आदि देव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥3
पुनः देवहूति उनकी कन्या थीजो कर्दम मुनि की प्यारी पत्नी हुई और जिन्होंने आदि देवदीनों पर दया करने वाले समर्थ एवं कृपालु भगवान कपिल को गर्भ में धारण किया॥3
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥4
तत्वों का विचार करने में अत्यन्त निपुण जिन (कपिलभगवान ने सांख्य शास्त्र का प्रकट रूप में वर्णन कियाउन (स्वायम्भुवमनुजी ने बहुत समय तक राज्य किया और सब प्रकार से भगवान की आज्ञा (रूप शास्त्रों की मर्यादाका पालन किया॥4
सोरठा :
होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन॥
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142
घर में रहते बुढ़ापा आ गयापरन्तु विषयों से वैराग्य नहीं होता (इस बात को सोचकरउनके मन में बड़ा दुःख हुआ कि श्री हरि की भक्ति बिना जन्म यों ही चला गया॥142
चौपाई :
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥1
तब मनुजी ने अपने पुत्र को जबर्दस्ती राज्य देकर स्वयं स्त्री सहित वन को गमन किया। अत्यन्त पवित्र और साधकों को सिद्धि देने वाला तीर्थों में श्रेष्ठ नैमिषारण्य प्रसिद्ध है॥1
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥2
वहाँ मुनियों और सिद्धों के समूह बसते हैं। राजा मनु हृदय में हर्षित होकर वहीं चले। वे धीर बुद्धि वाले राजा-रानी मार्ग में जाते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों ज्ञान और भक्ति ही शरीर धारण किए जा रहे हों॥2
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥3
(चलते-चलतेवे गोमती के किनारे जा पहुँचे। हर्षित होकर उन्होंने निर्मल जल में स्नान किया। उनको धर्मधुरंधर राजर्षि जानकर सिद्ध और ज्ञानी मुनि उनसे मिलने आए॥3
जहँ जहँ तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना॥4
जहाँ-जहाँ सुंदर तीर्थ थेमुनियों ने आदरपूर्वक सभी तीर्थ उनको करा दिए। उनका शरीर दुर्बल हो गया था। वे मुनियों के से (वल्कलवस्त्र धारण करते थे और संतों के समाज में नित्य पुराण सुनते थे॥4
दोहा :
द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥143
और द्वादशाक्षर मन्त्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवायका प्रेम सहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरणकमलों में उन राजा-रानी का मन बहुत ही लग गया॥143
चौपाई :
करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥1
वे सागफल और कन्द का आहार करते थे और सच्चिदानंद ब्रह्म का स्मरण करते थे। फिर वे श्री हरि के लिए तप करने लगे और मूल-फल को त्यागकर केवल जल के आधार पर रहने लगे॥1
उर अभिलाष निरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥2
हृदय में निरंतर यही अभिलाषा हुआ करती कि हम (कैसेउन परम प्रभु को आँखों से देखेंजो निर्गुणअखंडअनंत और अनादि हैं और परमार्थवादी (ब्रह्मज्ञानीतत्त्ववेत्तालोग जिनका चिन्तन किया करते हैं॥2
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥3
जिन्हें वेद 'नेति-नेति' (यह भी नहींयह भी नहींकहकर निरूपण करते हैं। जो आनंदस्वरूपउपाधिरहित और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिवब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैं॥3
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥4
ऐसे (महान) प्रभु भी सेवक के वश में हैं और भक्तों के लिए (दिव्यलीला विग्रह धारण करते हैं। यदि वेदों में यह वचन सत्य कहा हैतो हमारी अभिलाषा भी अवश्य पूरी होगी॥4
दोहा :
एहि विधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥144
इस प्रकार जल का आहार (करके तपकरते छह हजार वर्ष बीत गए। फिर सात हजार वर्ष वे वायु के आधार पर रहे॥144


चौपाई :
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥
बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥1
दस हजार वर्ष तक उन्होंने वायु का आधार भी छोड़ दिया। दोनों एक पैर से खड़े रहे। उनका अपार तप देखकर ब्रह्माविष्णु और शिवजी कई बार मनुजी के पास आए॥1
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥2
उन्होंने इन्हें अनेक प्रकार से ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो। पर ये परम धैर्यवान (राजा-रानी अपने तप से किसी केडिगाए नहीं डिगे। यद्यपि उनका शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया थाफिर भी उनके मन में जरा भी पीड़ा नहीं थी॥2
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥3
सर्वज्ञ प्रभु ने अनन्य गति (आश्रयवाले तपस्वी राजा-रानी को 'निज दासजाना। तब परम गंभीर और कृपा रूपी अमृत से सनी हुई यह आकाशवाणी हुई कि 'वर माँगो'3
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रवन रंध्र होइ उर जब आई॥
हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥4
मुर्दे को भी जिला देने वाली यह सुंदर वाणी कानों के छेदों से होकर जब हृदय में आईतब राजा-रानी के शरीर ऐसे सुंदर और हृष्ट-पुष्ट हो गएमानो अभी घर से आए हैं॥4
दोहा :
श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥145
कानों में अमृत के समान लगने वाले वचन सुनते ही उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। तब मनुजी दण्डवत करके बोलेप्रेम हृदय में समाता न था-145
चौपाई :
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥1
हे प्रभो! सुनिएआप सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपके चरण रज की ब्रह्माविष्णु और शिवजी भी वंदना करते हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देने वाले हैं। आप शरणागत के रक्षक और जड़-चेतन के स्वामी हैं॥1
जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होई यह बर देहू॥
जोसरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥2
हे अनाथों का कल्याण करने वालेयदि हम लोगों पर आपका स्नेह हैतो प्रसन्न होकर यह वर दीजिए कि आपका जो स्वरूप शिवजी के मन में बसता है और जिस (की प्राप्तिके लिए मुनि लोग यत्न करते हैं॥2
जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥3
जो काकभुशुण्डि के मन रूपी मान सरोवर में विहार करने वाला हंस हैसगुण और निर्गुण कहकर वेद जिसकी प्रशंसा करते हैंहे शरणागत के दुःख मिटाने वाले प्रभोऐसी कृपा कीजिए कि हम उसी रूप को नेत्र भरकर देखें॥3
दंपति बचन परम प्रिय लागे। मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥4
राजा-रानी के कोमलविनययुक्त और प्रेमरस में पगे हुए वचन भगवान को बहुत ही प्रिय लगे। भक्तवत्सलकृपानिधानसम्पूर्ण विश्व के निवास स्थान (या समस्त विश्व में व्यापक)सर्वसमर्थ भगवान प्रकट हो गए॥4
दोहा :
नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146
भगवान के नीले कमलनीलमणि और नीले (जलयुक्तमेघ के समान (कोमलप्रकाशमय और सरसश्यामवर्ण (चिन्मयशरीर की शोभा देखकर करोड़ों कामदेव भी लजा जाते हैं॥146
चौपाई :
सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥1
उनका मुख शरद (पूर्णिमाके चन्द्रमा के समान छबि की सीमास्वरूप था। गाल और ठोड़ी बहुत सुंदर थेगला शंख के समान (त्रिरेखायुक्तचढ़ाव-उतार वालाथा। लाल होठदाँत और नाक अत्यन्त सुंदर थे। हँसी चन्द्रमा की किरणावली को नीचा दिखाने वाली थी॥1
नव अंबुज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँतीजी की॥
भृकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥2
नेत्रों की छवि नए (खिले हुएकमल के समान बड़ी सुंदर थी। मनोहर चितवन जी को बहुत प्यारी लगती थी। टेढ़ी भौंहें कामदेव के धनुष की शोभा को हरने वाली थीं। ललाट पटल पर प्रकाशमय तिलक था॥2
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥3
कानों में मकराकृत (मछली के आकार केकुंडल और सिर पर मुकुट सुशोभित था। टेढ़े (घुँघरालेकाले बाल ऐसे सघन थेमानो भौंरों के झुंड हों। हृदय पर श्रीवत्ससुंदर वनमालारत्नजड़ित हार और मणियों के आभूषण सुशोभित थे॥3
केहरि कंधर चारु जनेऊ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
मकरि कर सरिस सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥4
सिंह की सी गर्दन थीसुंदर जनेऊ था। भुजाओं में जो गहने थेवे भी सुंदर थे। हाथी की सूँड के समान (उतार-चढ़ाव वालेसुंदर भुजदंड थे। कमर में तरकस और हाथ में बाण और धनुष (शोभा पा रहेथे॥4
दोहा :
तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि।
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भँवर छबि छीनि॥147
(स्वर्ण-वर्ण का प्रकाशमयपीताम्बर बिजली को लजाने वाला था। पेट पर सुंदर तीन रेखाएँ (त्रिवलीथीं। नाभि ऐसी मनोहर थीमानो यमुनाजी के भँवरों की छबि को छीने लेती हो॥147
चौपाई :
पद राजीव बरनि नहिं जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥1
जिनमें मुनियों के मन रूपी भौंरे बसते हैंभगवान के उन चरणकमलों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। भगवान के बाएँ भाग में सदा अनुकूल रहने वालीशोभा की राशि जगत की मूलकारण रूपा आदि शक्ति श्री जानकीजी सुशोभित हैं॥1
जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥2
जिनके अंश से गुणों की खान अगणित लक्ष्मीपार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेवों की शक्तियाँ) उत्पन्न होती हैं तथा जिनकी भौंह के इशारे से ही जगत की रचना हो जाती हैवही (भगवान की स्वरूपा शक्तिश्री सीताजी श्री रामचन्द्रजी की बाईं ओर स्थित हैं॥2
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥3
शोभा के समुद्र श्री हरि के रूप को देखकर मनु-शतरूपा नेत्रों के पट (पलकेंरोके हुए एकटक (स्तब्धरह गए। उस अनुपम रूप को वे आदर सहित देख रहे थे और देखते-देखते अघाते ही न थे॥3
हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥4
आनंद के अधिक वश में हो जाने के कारण उन्हें अपने देह की सुधि भूल गई। वे हाथों से भगवान के चरण पकड़कर दण्ड की तरह (सीधेभूमि पर गिर पड़े। कृपा की राशि प्रभु ने अपने करकमलों से उनके मस्तकों का स्पर्श किया और उन्हें तुरंत ही उठा लिया॥4
दोहा :
बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148
फिर कृपानिधान भगवान बोलेमुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकरजो मन को भाए वही वर माँग लो॥148
चौपाई :
सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥1
प्रभु के वचन सुनकरदोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कहीहे नाथआपके चरणकमलों को देखकर अब हमारी सारी मनःकामनाएँ पूरी हो गईं॥1
एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥2
फिर भी मन में एक बड़ी लालसा है। उसका पूरा होना सहज भी है और अत्यन्त कठिन भीइसी से उसे कहते नहीं बनता। हे स्वामीआपके लिए तो उसका पूरा करना बहुत सहज हैपर मुझे अपनी कृपणता (दीनताके कारण वह अत्यन्त कठिन मालूम होता है॥2
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥3
जैसे कोई दरिद्र कल्पवृक्ष को पाकर भी अधिक द्रव्य माँगने में संकोच करता हैक्योंकि वह उसके प्रभाव को नहीं जानतावैसे ही मेरे हृदय में संशय हो रहा है॥3
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥4
हे स्वामीआप अन्तरयामी हैंइसलिए उसे जानते ही हैं। मेरा वह मनोरथ पूरा कीजिए। (भगवान ने कहा-) हे राजन्‌संकोच छोड़कर मुझसे माँगो। तुम्हें न दे सकूँ ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है॥4
दोहा :
दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149
(राजा ने कहा-) हे दानियों के शिरोमणिहे कृपानिधानहे नाथमैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ। प्रभु से भला क्या छिपाना! 149
चौपाई :
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥1
राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान बोलेऐसा ही हो। हे राजन्‌मैं अपने समान (दूसराकहाँ जाकर खोजूँअतः स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा॥1
सतरूपहिं बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरें॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥2
शतरूपाजी को हाथ जोड़े देखकर भगवान ने कहाहे देवीतुम्हारी जो इच्छा होसो वर माँग लो। (शतरूपा ने कहा-) हे नाथचतुर राजा ने जो वर माँगाहे कृपालुवह मुझे बहुत ही प्रिय लगा,2
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥3
परंतु हे प्रभुबहुत ढिठाई हो रही हैयद्यपि हे भक्तों का हित करने वालेवह ढिठाई भी आपको अच्छी ही लगती है। आप ब्रह्मा आदि के भी पिता (उत्पन्न करने वाले)जगत के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जानने वाले ब्रह्म हैं॥3
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥4
ऐसा समझने पर मन में संदेह होता हैफिर भी प्रभु ने जो कहा वही प्रमाण (सत्यहै। (मैं तो यह माँगती हूँ किहे नाथआपके जो निज जन हैंवे जो (अलौकिकअखंड) सुख पाते हैं और जिस परम गति को प्राप्त होते हैं-4
दोहा :
सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु।
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150
हे प्रभोवही सुखवही गतिवही भक्तिवही अपने चरणों में प्रेमवही ज्ञान और वही रहन-सहन कृपा करके हमें दीजिए॥150
चौपाई :
सुनि मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥
जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥1
(रानी की) कोमलगूढ़ और मनोहर श्रेष्ठ वाक्य रचना सुनकर कृपा के समुद्र भगवान कोमल वचन बोलेतुम्हारे मन में जो कुछ इच्छा हैवह सब मैंने तुमको दियाइसमें कोई संदेह न समझना॥1
मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें॥
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी॥2
हे मातामेरी कृपा से तुम्हारा अलौकिक ज्ञान कभी नष्ट न होगा। तब मनु ने भगवान के चरणों की वंदना करके फिर कहाहे प्रभुमेरी एक विनती और है-2
सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहे किन कोऊ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥3
आपके चरणों में मेरी वैसी ही प्रीति हो जैसी पुत्र के लिए पिता की होती हैचाहे मुझे कोई बड़ा भारी मूर्ख ही क्यों न कहे। जैसे मणि के बिना साँप और जल के बिना मछली (नहीं रह सकती)वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे(आपके बिना न रह सके)3
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥4
ऐसा वर माँगकर राजा भगवान के चरण पकड़े रह गए। तब दया के निधान भगवान ने कहाऐसा ही हो। अब तुम मेरी आज्ञा मानकर देवराज इन्द्र की राजधानी (अमरावतीमें जाकर वास करो॥4
सोरठा :
तहँ करि भोग बिसाल तात गएँ कछु काल पुनि।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥151
हे तातवहाँ (स्वर्ग केबहुत से भोग भोगकरकुछ काल बीत जाने परतुम अवध के राजा होंगे। तब मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा॥151
चौपाई :
इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारें॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥1
इच्छानिर्मित मनुष्य रूप सजकर मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊँगा। हे तातमैं अपने अंशों सहित देह धारण करके भक्तों को सुख देने वाले चरित्र करूँगा॥1
जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥2
जिन (चरित्रों) को बड़े भाग्यशाली मनुष्य आदरसहित सुनकरममता और मद त्यागकरभवसागर से तर जाएँगे। आदिशक्ति यह मेरी (स्वरूपभूतामाया भीजिसने जगत को उत्पन्न किया हैअवतार लेगी॥2
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥3
इस प्रकार मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी करूँगा। मेरा प्रण सत्य हैसत्य हैसत्य है। कृपानिधान भगवान बार-बार ऐसा कहकर अन्तरधान हो गए॥3
दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥4
वे स्त्री-पुरुष (राजा-रानीभक्तों पर कृपा करने वाले भगवान को हृदय में धारण करके कुछ काल तक उस आश्रम में रहे। फिर उन्होंने समय पाकरसहज ही (बिना किसी कष्ट केशरीर छोड़करअमरावती (इन्द्र की पुरीमें जाकर वास किया॥4
दोहा :
यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥152
(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-) हे भरद्वाजइस अत्यन्त पवित्र इतिहास को शिवजी ने पार्वती से कहा था। अब श्रीराम के अवतार लेने का दूसरा कारण सुनो॥152
मासपारायणपाँचवाँ विश्राम

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