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चित्रकूट में निवास, कोल-भीलों के द्वारा सेवा


दोहा :
चित्रकूट महिमा अमित कही महामुनि गाइ।
आइ नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ॥132
महामुनि वाल्मीकिजी ने चित्रकूट की अपरिमित महिमा बखान कर कही। तब सीताजी सहित दोनों भाइयों ने आकर श्रेष्ठ नदी मंदाकिनी में स्नान किया॥132
चौपाई :
रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू॥
लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥1
श्री रामचन्द्रजी ने कहालक्ष्मणबड़ा अच्छा घाट है। अब यहीं कहीं ठहरने की व्यवस्था करो। तब लक्ष्मणजी ने पयस्विनी नदी के उत्तर के ऊँचे किनारे को देखा(और कहा कि-) इसके चारों ओर धनुष के जैसा एक नाला फिरा हुआ है॥।1
नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलुष कलि साउज नाना॥
चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी॥2
नदी (मंदाकिनीउस धनुष की प्रत्यंचा (डोरीहै और शमदमदान बाण हैं। कलियुग के समस्त पाप उसके अनेक हिंसक पशु (रूप निशानेहैं। चित्रकूट ही मानो अचल शिकारी हैजिसका निशाना कभी चूकता नहीं और जो सामने से मारता है॥2
अस कहि लखन ठाउँ देखरावा। थलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा॥
रमेउ राम मनु देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति प्रधाना॥3
ऐसा कहकर लक्ष्मणजी ने स्थान दिखाया। स्थान को देखकर श्री रामचन्द्रजी ने सुख पाया। जब देवताओं ने जाना कि श्री रामचन्द्रजी का मन यहाँ रम गयातब वे देवताओं के प्रधान थवई (मकान बनाने वालेविश्वकर्मा को साथ लेकर चले॥3
कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए॥
बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला॥4
सब देवता कोल-भीलों के वेष में आए और उन्होंने (दिव्यपत्तों और घासों के सुंदर घर बना दिए। दो ऐसी सुंदर कुटिया बनाईं जिनका वर्णन नहीं हो सकता। उनमें एक बड़ी सुंदर छोटी सी थी और दूसरी बड़ी थी॥4
दोहा :
लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत।
सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत॥133
लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी सुंदर घास-पत्तों के घर में शोभायमान हैं। मानो कामदेव मुनि का वेष धारण करके पत्नी रति और वसंत ऋतु के साथ सुशोभित हो॥133
मासपारायणसत्रहवाँ विश्राम
चौपाई :
अमर नाग किंनर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला॥
राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू॥1
उस समय देवतानागकिन्नर और दिक्पाल चित्रकूट में आए और श्री रामचन्द्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया। देवता नेत्रों का लाभ पाकर आनंदित हुए॥1
बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू॥
करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए॥2
फूलों की वर्षा करके देव समाज ने कहाहे नाथआज (आपका दर्शन पाकरहम सनाथ हो गए। फिर विनती करके उन्होंने अपने दुःसह दुःख सुनाए और (दुःखों के नाश का आश्वासन पाकरहर्षित होकर अपने-अपने स्थानों को चले गए॥2
चित्रकूट रघुनंदनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए॥
आवत देखि मुदित मुनिबृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा॥3
श्री रघुनाथजी चित्रकूट में आ बसे हैंयह समाचार सुन-सुनकर बहुत से मुनि आए। रघुकुल के चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजी ने मुदित हुई मुनि मंडली को आते देखकर दंडवत प्रणाम किया॥3
मुनि रघुबरहि लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आसिष देहीं॥
सिय सौमित्रि राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं॥4
मुनिगण श्री रामजी को हृदय से लगा लेते हैं और सफल होने के लिए आशीर्वाद देते हैं। वे सीताजीलक्ष्मणजी और श्री रामचन्द्रजी की छबि देखते हैं और अपने सारे साधनों को सफल हुआ समझते हैं॥4
दोहा :
जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिबृंद।
करहिं जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद॥134
प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने यथायोग्य सम्मान करके मुनि मंडली को विदा किया। (श्री रामचन्द्रजी के आ जाने सेवे सब अपने-अपने आश्रमों में अब स्वतंत्रता के साथ योगजपयज्ञ और तप करने लगे॥134
चौपाई :
यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई॥
कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना॥1
यह (श्री रामजी के आगमन कासमाचार जब कोल-भीलों ने पायातो वे ऐसे हर्षित हुए मानो नवों निधियाँ उनके घर ही पर आ गई हों। वे दोनों में कंदमूलफल भर-भरकर चलेमानो दरिद्र सोना लूटने चले हों॥1
तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहि पूँछहिं मगु जाता॥
कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई॥2
उनमें से जो दोनों भाइयों को (पहलेदेख चुके थेउनसे दूसरे लोग रास्ते में जाते हुए पूछते हैं। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी की सुंदरता कहते-सुनते सबने आकर श्री रघुनाथजी के दर्शन किए॥2
करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे॥
चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े॥3
भेंट आगे रखकर वे लोग जोहार करते हैं और अत्यन्त अनुराग के साथ प्रभु को देखते हैं। वे मुग्ध हुए जहाँ के तहाँ मानो चित्र लिखे से खड़े हैं। उनके शरीर पुलकित हैं और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के जल की बाढ़ आ रही है॥3
राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने॥
प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिंकर जोरी॥4
श्री रामजी ने उन सबको प्रेम में मग्न जाना और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। वे बार-बार प्रभु श्री रामचन्द्रजी को जोहार करते हुए हाथ जोड़कर विनीत वचन कहते हैं-4
दोहा :
अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय।
भाग हमारें आगमनु राउर कोसलराय॥135
हे नाथप्रभु (आपके चरणों का दर्शन पाकर अब हम सब सनाथ हो गए। हे कोसलराजहमारे ही भाग्य से आपका यहाँ शुभागमन हुआ है॥135
चौपाई :
धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा॥
धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी॥1
हे नाथजहाँ-जहाँ आपने अपने चरण रखे हैंवे पृथ्वीवनमार्ग और पहाड़ धन्य हैंवे वन में विचरने वाले पक्षी और पशु धन्य हैंजो आपको देखकर सफल जन्म हो गए॥1
हम सब धन्य सहित परिवारा। दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा॥
कीन्ह बासु भल ठाउँ बिचारी। इहाँ सकल रितु रहब सुखारी॥2
हम सब भी अपने परिवार सहित धन्य हैंजिन्होंने नेत्र भरकर आपका दर्शन किया। आपने बड़ी अच्छी जगह विचारकर निवास किया है। यहाँ सभी ऋतुओं में आप सुखी रहिएगा॥2
हम सब भाँति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई॥
बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा॥3
हम लोग सब प्रकार से हाथीसिंहसर्प और बाघों से बचाकर आपकी सेवा करेंगे। हे प्रभोयहाँ के बीहड़ वनपहाड़गुफाएँ और खोह (दर्रेसब पग-पग हमारे देखे हुए हैं॥3
तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब। सर निरझर जलठाउँ देखाउब॥
हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता॥4
हम वहाँ-वहाँ (उन-उन स्थानों मेंआपको शिकार खिलाएँगे और तालाबझरने आदि जलाशयों को दिखाएँगे। हम कुटुम्ब समेत आपके सेवक हैं। हे नाथइसलिए हमें आज्ञा देने में संकोच न कीजिए॥4
दोहा :
बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन॥136
जो वेदों के वचन और मुनियों के मन को भी अगम हैंवे करुणा के धाम प्रभु श्री रामचन्द्रजी भीलों के वचन इस तरह सुन रहे हैंजैसे पिता बालकों के वचन सुनता है॥136
चौपाई :
रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥
राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥1
श्री रामचन्द्रजी को केवल प्रेम प्यारा हैजो जानने वाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब श्री रामचन्द्रजी ने प्रेम से परिपुष्ट हुए (प्रेमपूर्णकोमल वचन कहकर उन सब वन में विचरण करने वाले लोगों को संतुष्ट किया॥1
बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए॥
एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई॥2
फिर उनको विदा किया। वे सिर नवाकर चले और प्रभु के गुण कहते-सुनते घर आए। इस प्रकार देवता और मुनियों को सुख देने वाले दोनों भाई सीताजी समेत वन में निवास करने लगे॥2
जब तें आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयउ बनु मंगलदायकु॥
फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना। मंजु बलित बर बेलि बिताना॥3
जब से श्री रघुनाथजी वन में आकर रहे तब से वन मंगलदायक हो गया। अनेक प्रकार के वृक्ष फूलते और फलते हैं और उन पर लिपटी हुई सुंदर बेलों के मंडप तने हैं॥3
सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए। मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए॥
गुंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी॥4
वे कल्पवृक्ष के समान स्वाभाविक ही सुंदर हैं। मानो वे देवताओं के वन (नंदन वनको छोड़कर आए हों। भौंरों की पंक्तियाँ बहुत ही सुंदर गुंजार करती हैं और सुख देने वाली शीतलमंदसुगंधित हवा चलती रहती है॥4
दोहा :
नीलकंठ कलकंठ सुक चातक चक्क चकोर।
भाँति भाँति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चित चोर॥137
नीलकंठकोयलतोतेपपीहेचकवे और चकोर आदि पक्षी कानों को सुख देने वाली और चित्त को चुराने वाली तरह-तरह की बोलियाँ बोलते हैं॥137
चौपाई :
करि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा॥
फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृग बृंद बिसेषी॥1
हाथीसिंहबंदरसूअर और हिरनये सब वैर छोड़कर साथ-साथ विचरते हैं। शिकार के लिए फिरते हुए श्री रामचन्द्रजी की छबि को देखकर पशुओं के समूह विशेष आनंदित होते हैं॥1
बिबुध बिपिन जहँ लगि जग माहीं। देखि रामबनु सकल सिहाहीं॥
सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरि धन्या॥2
जगत में जहाँ तक (जितनेदेवताओं के वन हैंसब श्री रामजी के वन को देखकर सिहाते हैंगंगासरस्वतीसूर्यकुमारी यमुनानर्मदागोदावरी आदि धन्य(पुण्यमयीनदियाँ,2
सब सर सिंधु नदीं नद नाना। मंदाकिनि कर करहिं बखाना॥
उदय अस्त गिरि अरु कैलासू। मंदर मेरु सकल सुरबासू॥3
सारे तालाबसमुद्रनदी और अनेकों नद सब मंदाकिनी की बड़ाई करते हैं। उदयाचलअस्ताचलकैलासमंदराचल और सुमेरु आदि सबजो देवताओं के रहने के स्थान हैं,3
सैल हिमाचल आदिक जेते। चित्रकूट जसु गावहिं तेते॥
बिंधि मुदित मन सुखु न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई॥4
और हिमालय आदि जितने पर्वत हैंसभी चित्रकूट का यश गाते हैं। विन्ध्याचल बड़ा आनंदित हैउसके मन में सुख समाता नहींक्योंकि उसने बिना परिश्रम ही बहुत बड़ी बड़ाई पा ली है॥4
दोहा :
चित्रकूट के बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति।
पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति॥138
चित्रकूट के पक्षीपशुबेलवृक्षतृण-अंकुरादि की सभी जातियाँ पुण्य की राशि हैं और धन्य हैंदेवता दिन-रात ऐसा कहते हैं॥138
चौपाई :
नयनवंत रघुबरहि बिलोकी। पाइ जनम फल होहिं बिसोकी॥
परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी॥1
आँखों वाले जीव श्री रामचन्द्रजी को देखकर जन्म का फल पाकर शोकरहित हो जाते हैं और अचर (पर्वतवृक्षभूमिनदी आदिभगवान की चरण रज का स्पर्श पाकर सुखी होते हैं। यों सभी परम पद (मोक्षके अधिकारी हो गए॥1
सो बनु सैलु सुभायँ सुहावन। मंगलमय अति पावन पावन॥
महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू। सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू॥2
वह वन और पर्वत स्वाभाविक ही सुंदरमंगलमय और अत्यन्त पवित्रों को भी पवित्र करने वाला है। उसकी महिमा किस प्रकार कही जाएजहाँ सुख के समुद्र श्री रामजी ने निवास किया है॥2
पय पयोधि तजि अवध बिहाई। जहँ सिय लखनु रामु रहे आई॥
कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौं सत सहस होहिं सहसानन॥3
क्षीर सागर को त्यागकर और अयोध्या को छोड़कर जहाँ सीताजीलक्ष्मणजी और श्री रामचन्द्रजी आकर रहेउस वन की जैसी परम शोभा हैउसको हजार मुख वाले जो लाख शेषजी हों तो वे भी नहीं कह सकते॥3
सो मैं बरनि कहौं बिधि केहीं। डाबर कमठ कि मंदर लेहीं॥
सेवहिं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी॥4
उसे भलामैं किस प्रकार से वर्णन करके कह सकता हूँ। कहीं पोखरे का (क्षुद्रकछुआ भी मंदराचल उठा सकता हैलक्ष्मणजी मनवचन और कर्म से श्री रामचन्द्रजी की सेवा करते हैं। उनके शील और स्नेह का वर्णन नहीं किया जा सकता॥4
दोहा :
छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु।
करत न सपनेहुँ लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु॥139
क्षण-क्षण पर श्री सीता-रामजी के चरणों को देखकर और अपने ऊपर उनका स्नेह जानकर लक्ष्मणजी स्वप्न में भी भाइयोंमाता-पिता और घर की याद नहीं करते॥139
चौपाई :
राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी॥
छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोर कुमारी॥1
श्री रामचन्द्रजी के साथ सीताजी अयोध्यापुरीकुटुम्ब के लोग और घर की याद भूलकर बहुत ही सुखी रहती हैं। क्षण-क्षण पर पति श्री रामचन्द्रजी के चन्द्रमा के समान मुख को देखकर वे वैसे ही परम प्रसन्न रहती हैंजैसे चकोर कुमारी (चकोरीचन्द्रमा को देखकर !1
नाह नेहु नित बढ़त बिलोकी। हरषित रहति दिवस जिमि कोकी॥
सिय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु प्रिय लागा॥2
स्वामी का प्रेम अपने प्रति नित्य बढ़ता हुआ देखकर सीताजी ऐसी हर्षित रहती हैंजैसे दिन में चकवीसीताजी का मन श्री रामचन्द्रजी के चरणों में अनुरक्त है,इससे उनको वन हजारों अवध के समान प्रिय लगता है॥2
परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय परिवारु कुरंग बिहंगा॥
सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर। असनु अमिअ सम कंद मूल फर॥3
प्रियतम (श्री रामचन्द्रजीके साथ पर्णकुटी प्यारी लगती है। मृग और पक्षी प्यारे कुटुम्बियों के समान लगते हैं। मुनियों की स्त्रियाँ सास के समानश्रेष्ठ मुनि ससुर के समान और कंद-मूल-फलों का आहार उनको अमृत के समान लगता है॥3
नाथ साथ साँथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई॥
लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू॥4
स्वामी के साथ सुंदर साथरी (कुश और पत्तों की सेजसैकड़ों कामदेव की सेजों के समान सुख देने वाली है। जिनके (कृपापूर्वकदेखने मात्र से जीव लोकपाल हो जाते हैंउनको कहीं भोग-विलास मोहित कर सकते हैं!4
दोहा :
सुमिरत रामहि तजहिं जन तृन सम बिषय बिलासु।
रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु॥140
जिन श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करने से ही भक्तजन तमाम भोग-विलास को तिनके के समान त्याग देते हैंउन श्री रामचन्द्रजी की प्रिय पत्नी और जगत की माता सीताजी के लिए यह (भोग-विलास का त्यागकुछ भी आश्चर्य नहीं है॥140
चौपाई :
सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं॥
कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी॥1
सीताजी और लक्ष्मणजी को जिस प्रकार सुख मिलेश्री रघुनाथजी वही करते और वही कहते हैं। भगवान प्राचीन कथाएँ और कहानियाँ कहते हैं और लक्ष्मणजी तथा सीताजी अत्यन्त सुख मानकर सुनते हैं॥1
जब जब रामु अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीं॥
सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई॥2
जब-जब श्री रामचन्द्रजी अयोध्या की याद करते हैंतब-तब उनके नेत्रों में जल भर आता है। माता-पिताकुटुम्बियों और भाइयों तथा भरत के प्रेमशील और सेवाभाव को याद करके-2
कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी। धीरजु धरहिं कुसमउ बिचारी॥
लखि सिय लखनु बिकल होइ जाहीं। जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीं॥3
कृपा के समुद्र प्रभु श्री रामचन्द्रजी दुःखी हो जाते हैंकिन्तु फिर कुसमय समझकर धीरज धारण कर लेते हैं। श्री रामचन्द्रजी को दुःखी देखकर सीताजी और लक्ष्मणजी भी व्याकुल हो जाते हैंजैसे किसी मनुष्य की परछाहीं उस मनुष्य के समान ही चेष्टा करती है॥3
प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदनु। धीर कृपाल भगत उर चंदनु॥
लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुखु लहहिं लखनु अरु सीता॥4
तब धीरकृपालु और भक्तों के हृदयों को शीतल करने के लिए चंदन रूप रघुकुल को आनंदित करने वाले श्री रामचन्द्रजी प्यारी पत्नी और भाई लक्ष्मण की दशा देखकर कुछ पवित्र कथाएँ कहने लगते हैंजिन्हें सुनकर लक्ष्मणजी और सीताजी सुख प्राप्त करते हैं॥4
दोहा :
रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।
जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत॥141
लक्ष्मणजी और सीताजी सहित श्री रामचन्द्रजी पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हैंजैसे अमरावती में इन्द्र अपनी पत्नी शची और पुत्र जयंत सहित बसता है॥141
चौपाई :
जोगवहिं प्रभुसिय लखनहि कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें॥
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥1
प्रभु श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी की कैसी सँभाल रखते हैंजैसे पलकें नेत्रों के गोलकों की। इधर लक्ष्मणजी श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी की (अथवा लक्ष्मणजी और सीताजी श्री रामचन्द्रजी कीऐसी सेवा करते हैंजैसे अज्ञानी मनुष्य शरीर की करते हैं॥1
एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी॥
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा॥2
पक्षीपशुदेवता और तपस्वियों के हितकारी प्रभु इस प्रकार सुखपूर्वक वन में निवास कर रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैंमैंने श्री रामचन्द्रजी का सुंदर वनगमन कहा। अब जिस तरह सुमन्त्र अयोध्या में आए वह (कथासुनो॥2
फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई॥
मंत्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू॥3
प्रभु श्री रामचन्द्रजी को पहुँचाकर जब निषादराज लौटातब आकर उसने रथ को मंत्री (सुमंत्रसहित देखा। मंत्री को व्याकुल देखकर निषाद को जैसा दुःख हुआ,वह कहा नहीं जाता॥3
राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल ब्याकुल भारी॥
देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥4
(निषाद को अकेले आया देखकरसुमंत्र हा रामहा रामहा सीतेहा लक्ष्मणपुकारते हुएबहुत व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़े। (रथ केघोड़े दक्षिण दिशा की ओर (जिधर श्री रामचन्द्रजी गए थेदेख-देखकर हिनहिनाते हैं। मानो बिना पंख के पक्षी व्याकुल हो रहे हों॥4
दोहा :
नहिं तृन चरहिं न पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि।
ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि॥142
वे न तो घास चरते हैंन पानी पीते हैं। केवल आँखों से जल बहा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी के घोड़ों को इस दशा में देखकर सब निषाद व्याकुल हो गए॥142
चौपाई :
धरि धीरजु तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू॥
तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता॥1
तब धीरज धरकर निषादराज कहने लगाहे सुमंत्रजीअब विषाद को छोड़िए। आप पंडित और परमार्थ के जानने वाले हैं। विधाता को प्रतिकूल जानकर धैर्य धारण कीजिए॥1
बिबिधि कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी॥
सोक सिथिल रथु सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी॥2
कोमल वाणी से भाँति-भाँति की कथाएँ कहकर निषाद ने जबर्दस्ती लाकर सुमंत्र को रथ पर बैठायापरन्तु शोक के मारे वे इतने शिथिल हो गए कि रथ को हाँक नहीं सकते। उनके हृदय में श्री रामचन्द्रजी के विरह की बड़ी तीव्र वेदना है॥2
चरफराहिं मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे॥
अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें॥3
घोड़े तड़फड़ाते हैं और (ठीकरास्ते पर नहीं चलते। मानो जंगली पशु लाकर रथ में जोत दिए गए हों। वे श्री रामचन्द्रजी के वियोगी घोड़े कभी ठोकर खाकर गिर पड़ते हैंकभी घूमकर पीछे की ओर देखने लगते हैं। वे तीक्ष्ण दुःख से व्याकुल हैं॥3
जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही॥
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहिं भाँती॥4
जो कोई रामलक्ष्मण या जानकी का नाम ले लेता हैघोड़े हिकर-हिकरकर उसकी ओर प्यार से देखने लगते हैं। घोड़ों की विरह दशा कैसे कही जा सकती हैवे ऐसे व्याकुल हैंजैसे मणि के बिना साँप व्याकुल होता है॥4

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