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वाल्मीकि, वेद, ब्रह्मा, देवता, शिव, पार्वती आदि की वंदना


सोरठा :
बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥14 घ॥
मैं उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वंदना करता हूँजिन्होंने रामायण की रचना की हैजो खर (राक्षससहित होने पर भी (खर (कठोरसे विपरीतबड़ी कोमल और सुंदर है तथा जो दूषण (राक्षससहित होने पर भी दूषण अर्थात्‌ दोष से रहित है॥14 ()
बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥14 ङ॥
मैं चारों वेदों की वन्दना करता हूँजो संसार समुद्र के पार होने के लिए जहाज के समान हैं तथा जिन्हें श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करते स्वप्न में भी खेद(थकावटनहीं होता॥14 ()
बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ।
संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥14च॥
मैं ब्रह्माजी के चरण रज की वन्दना करता हूँजिन्होंने भवसागर बनाया हैजहाँ से एक ओर संतरूपी अमृतचन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्य रूपी विष और मदिरा उत्पन्न हुए॥14 ()
दोहा :
बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥14 छ॥
देवताब्राह्मणपंडितग्रहइन सबके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर कहता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुंदर मनोरथों को पूरा करें॥14 ()
चौपाई :
पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥1
फिर मैं सरस्वती और देवनदी गंगाजी की वंदना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्र वाली हैं। एक (गंगाजीस्नान करने और जल पीने से पापों को हरती है और दूसरी (सरस्वतीजीगुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है॥1
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥2
श्री महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँजो मेरे गुरु और माता-पिता हैंजो दीनबन्धु और नित्य दान करने वाले हैंजो सीतापति श्री रामचन्द्रजी के सेवक,स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदास का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करने वाले हैं॥2
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥3
जिन शिव-पार्वती ने कलियुग को देखकरजगत के हित के लिएशाबर मन्त्र समूह की रचना कीजिन मंत्रों के अक्षर बेमेल हैंजिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता हैतथापि श्री शिवजी के प्रताप से जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥3
सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बस्नउँ रामचरित चित चाऊ॥4
वे उमापति शिवजी मुझ पर प्रसन्न होकर (श्री रामजी कीइस कथा को आनन्द और मंगल की मूल (उत्पन्न करने वालीबनाएँगे। इस प्रकार पार्वतीजी और शिवजी दोनों का स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर मैं चाव भरे चित्त से श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥4
भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥5 
होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥6
मेरी कविता श्री शिवजी की कृपा से ऐसी सुशोभित होगीजैसी तारागणों के सहित चन्द्रमा के साथ रात्रि शोभित होती हैजो इस कथा को प्रेम सहित एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कहें-सुनेंगेवे कलियुग के पापों से रहित और सुंदर कल्याण के भागी होकर श्री रामचन्द्रजी के चरणों के प्रेमी बन जाएँगे॥5-6
दोहा :
सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥15
यदि मु्‌झ पर श्री शिवजी और पार्वतीजी की स्वप्न में भी सचमुच प्रसन्नता होतो मैंने इस भाषा कविता का जो प्रभाव कहा हैवह सब सच हो॥15

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