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पृथ्वी और देवतादि की करुण पुकार


चौपाई :
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥1
पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलाने वालेदुष्टचोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं (की सेवा करना तो दूर रहाउल्टे उनसे सेवा करवाते थे॥1
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥2
(श्री शिवजी कहते हैं कि-) हे भवानीजिनके ऐसे आचरण हैंउन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना। इस प्रकार धर्म के प्रति (लोगों कीअतिशय ग्लानि (अरुचिअनास्था) देखकर पृथ्वी अत्यन्त भयभीत एवं व्याकुल हो गई॥2
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥3
(वह सोचने लगी किपर्वतोंनदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ताजितना भारी मुझे एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करने वालालगता है। पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही हैपर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं सकती॥3
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥4
(अंत मेंहृदय में सोच-विचारकरगो का रूप धारण कर धरती वहाँ गईजहाँ सब देवता और मुनि (छिपेथे। पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुःख सुनायापर किसी से कुछ काम न बना॥4
छन्द :
सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥ 
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥
तब देवतामुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्माजी के लोक (सत्यलोकको गए। भय और शोक से अत्यन्त व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी। ब्रह्माजी सब जान गए। उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का। (तब उन्होंने पृथ्वी से कहा कि-) जिसकी तू दासी हैवही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है॥
सोरठा :
धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद सुमिरु।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥184
ब्रह्माजी ने कहाहे धरतीमन में धीरज धारण करके श्री हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैंवे तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे॥184
चौपाई :
बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥1
सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पावें ताकि उनके सामने पुकार (फरियाद) करें। कोई बैकुंठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं॥1
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेउँ॥2
जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती हैप्रभु वहाँ (उसके लिएसदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। हे पार्वतीउस समाज में मैं भी था। अवसर पाकर मैंने एक बात कही-2
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3
मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैंप्रेम से वे प्रकट हो जाते हैंदेशकालदिशाविदिशा में बताओऐसी जगह कहाँ हैजहाँ प्रभु न हों॥3
अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥4
वे चराचरमय (चराचर में व्याप्तहोते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है)वे प्रेम से प्रकट होते हैंजैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त हैपरन्तु जहाँ उसके लिए अरणिमन्थनादि साधन किए जाते हैंवहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्माजी ने 'साधु-साधुकहकर बड़ाई की॥4
दोहा :
सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185
मेरी बात सुनकर ब्रह्माजी के मन में बड़ा हर्ष हुआउनका तन पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेम केआँसू बहने लगे। तब वे धीरबुद्धि ब्रह्माजी सावधान होकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे॥185
छन्द :
जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥ 
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥1
हे देवताओं के स्वामीसेवकों को सुख देने वालेशरणागत की रक्षा करने वाले भगवानआपकी जय होजय हो!! हे गो-ब्राह्मणों का हित करने वालेअसुरों का विनाश करने वालेसमुद्र की कन्या (श्री लक्ष्मीजीके प्रिय स्वामी!आपकी जय होहे देवता और पृथ्वी का पालन करने वालेआपकी लीला अद्भुत हैउसका भेद कोई नहीं जानता। ऐसे जो स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैंवे ही हम पर कृपा करें॥1
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥ 
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥2
हे अविनाशीसबके हृदय में निवास करने वाले (अन्तर्यामी)सर्वव्यापकपरम आनंदस्वरूपअज्ञेयइन्द्रियों से परेपवित्र चरित्रमाया से रहित मुकुंद (मोक्षदाता)! आपकी जय होजय हो!! (इस लोक और परलोक के सब भोगों सेविरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानीमुनिवृन्द भी अत्यन्त अनुरागी (प्रेमीबनकर जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैंउन सच्चिदानंद की जय हो॥2
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥ 
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥3
जिन्होंने बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप- ब्रह्माविष्णुशिवरूपबनाकर अथवा बिना किसी उपादान-कारण के अर्थात्‌ स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनकर)तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न कीवे पापों का नाश करने वाले भगवान हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैंन पूजाजो संसार के (जन्म-मृत्यु केभय का नाश करने वालेमुनियों के मन को आनंद देने वाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाले हैं। हम सब देवताओं के समूहमनवचन और कर्म से चतुराई करने की बान छोड़कर उन (भगवानकी शरण (आएहैं॥3
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥ 
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥4
सरस्वतीवेदशेषजी और सम्पूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं जानतेजिन्हें दीन प्रिय हैंऐसा वेद पुकारकर कहते हैंवे ही श्री भगवान हम पर दया करें। हे संसार रूपी समुद्र के (मथने केलिए मंदराचल रूपसब प्रकार से सुंदर,गुणों के धाम और सुखों की राशि नाथआपके चरण कमलों में मुनिसिद्ध और सारे देवता भय से अत्यन्त व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं॥4

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